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________________ 41 अग्निभूति] कर्म-अस्तित्व-चर्चा मूर्त कर्म का अमूर्त प्रात्मा पर प्रभाव है भगवान्—यह कोई नियम नहीं कि मूर्त वस्तु अमूर्त वस्तु पर उपकार अथवा उपघात (ह्रास) कर ही न सके / कारण यह है कि हम देखते हैं कि विज्ञानादि अमूर्त हैं; परन्तु मदिरा, विष आदि मूर्त वस्तु द्वारा उन का उपघात होता है तथा घी-दूध आदि पौष्टिक भोजन से उनका उपकार होता है; इसी प्रकार मूर्त कर्म अमूर्त आत्मा पर उपकार अथवा उपघात कर सकते हैं। मैंने यह सब चर्चा इस बात को सिद्ध करने के लिए की है कि अमूर्त आत्मा से मूर्त कर्म का सम्बन्ध और तत्कृत उपकार-उपघात भी सम्भव हैं / [1637] संसारी आत्मा मर्त भी है किन्तु संसारी जीव वस्तुतः एकान्त रूप से अमूर्त नहीं, वह मूर्त भी है। जैसे अग्नि और लोहे का सम्बन्ध होने पर लोहा अग्नि रूप हो जाता है, वैसे ही संसारी जीव तथा कर्म का सम्बन्ध अनादि कालीन होने के कारण जीव भी कर्म के परिणाम रूप हो जाता है; अतः वह उस रूप में मूर्त भी है। इस प्रकार मूर्त कर्म से कथंचित् अभिन्न होने के कारण जीव भी कथंचित् मूर्त ही है। अतः मूर्त आत्मा पर मूर्त कर्म द्वारा होने वाले उपकार अथवा उपघात को स्वीकार करने में कोई दोष नहीं है। तुमने जो यह बात कही है कि आकाश पर मूर्त द्वारा उपकार या उपघात नहीं होता, वह ठीक नहीं है / कारण यह है कि आकाश अचेतन है और अमूर्त है, अतः उस पर मूर्त द्वारा उपकार-उपघात नहीं होता। किन्तु संसारी आत्मा चेतन है तथा मूर्तामूर्त है; अतः उस पर मूर्त द्वारा उपकार-उपघात मानने में कोई हानि नहीं / [1638] ___ अग्निभूति--पाप ने कहा है कि जीव से कर्म का सम्बन्ध अनादि काल से है, यह कैसे ? जीव-कर्म का अनादि सम्बन्ध भगवान्-गौतम ! देह और कर्म में परस्पर कार्य-कारण भाव है, अतः कर्मसन्तति अनादि है / जैसे बीज से अंकुर और अंकूर से बीज की बीजांकुर- सन्तति अनादि है, वैसे ही देह से कर्म और कर्म से देह के विषय में समझना चाहिए। इस प्रकार देह और कर्म की परम्परा अनादि काल से चली आ रही है; अतः कर्मसन्तति अनादि माननी चाहिए। जिनका परस्पर कार्य-कारण भाव होता है, उनको सन्तति अनादि होती है / [1636] ___अग्निभूति-मैं यह मानता हूँ कि आप की युक्तियों से कर्म का अस्तित्व Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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