________________ गणधरवाद [गणधर अँगुली तक मूर्त द्रव्य है, फिर भी पाकुचनादि अमूर्त क्रिया से उसका समवाय सम्बन्ध है, इसी प्रकार जीव और कर्म का सम्बन्ध सिद्ध होता है / [1635] किंवा जीव और कर्म का सम्बन्ध अन्य प्रकार से भी सिद्ध हो सकता है। स्थूल शरीर मूर्त है, परन्तु उसका आत्मा से सम्बन्ध प्रत्यक्ष ही है, अतः भवान्तर में गमन करते हुए जीव का कार्मण शरीर से सम्बन्ध भी सिद्ध ही स्वीकार करना चाहिए, अन्यथा नए स्थूल शरीर का ग्रहण सम्भव नहीं / अन्य भी ऐसे पूर्वोक्त दोष उपस्थित होंगे। अग्निभूति-नए शरीर का ग्रहण कार्मण शरीर से नहीं, अपितु धर्म और अधर्म से होता है। अतः मूर्त कामण शरीर का अमूर्त प्रात्मा से सम्बन्ध मानने की आवश्यकता ही नहीं है। भगवान्– इस विषय में यह पूछना है कि वे धर्म और अधर्म मूर्त हैं या अमूर्त ? अग्निभूति-धर्म व अधर्म अमूर्त हैं। भगवान्–तो फिर धर्म व अधर्म का भी अमूर्त आत्मा से कैसे सम्बन्ध होगा ? क्योंकि तुम कहते हो कि मूर्त का अमूर्त से सम्बन्ध नहीं होता। यदि वे मूर्त हों तो वे कर्म ही हैं, अग्निभूति-ऐसी दशा में धर्म व अधर्म को अमूर्त मानना चाहिए। धर्म व अधर्म कर्म ही हैं भगवान् - तो भी धर्म व अधर्म का मूर्त स्थूल शरीर से कैसे सम्बन्ध होगा ? तुम तो यह कहते हो कि मूर्त अमूर्त का सम्बन्ध होता ही नहीं / पुनश्च यदि धर्माधर्म का शरीर से सम्बन्ध ही न हो तो उसके आधार पर बाह्य शरीर में चेष्टादि भी कैसे सम्पन्न होगी ? अतः यदि तुम अमूर्त धर्माधर्म का सम्बन्ध मूर्त शरीर से मानते हो तो अमूर्त आत्मा का मूर्त कर्म से भी सम्बन्ध मान लेना चाहिए। [1636] अग्निभूति- एक के अमूर्त और दूसरे के मूर्त होने पर भी जीव तथा कर्म का सम्बन्ध आकाश तथा अग्नि के समान सम्भव है, यह बात तो मेरी समझ में आ गई है, किन्तु जिस प्रकार आकाश और अग्नि का सम्बन्ध होने पर भी आकाश में अग्नि द्वारा किसी प्रकार का अनुग्रह या उपघात नहीं हो सकता, उसी प्रकार अमूर्त आत्मा में मूर्त कर्म द्वारा उपकार अथवा उपघात सम्भव नहीं; चाहे उन दोनों का सम्बन्ध हो गया हो। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.