________________ प्रग्निभूति] कर्म-अस्तित्व-चर्चा 39 शरीर में भी स्वभावतः ,उक्त विचित्रता का अस्तित्व हो तो फिर शरीर की विचित्रता के कारण-रूप कर्म की कल्पना की क्या आवश्यकता है ? भगवान्-तुम यह भूल जाते हो कि मैं तुम्हें यह बात समझा ही चुका हूँ कि कर्म भी एक शरीर है। अतः बादलों की विचित्रता के समान यदि शरीर भी विचित्र हो तो तुम्हें शरीर रूप कर्म को भी विचित्र मानना चाहिए। दोनों में भेद यह है कि बाह्य औदारिक शरीर की अपेक्षा कार्मण शरीर सूक्ष्मतर है और आभ्यन्तर है / फिर भी बादलों के समान यदि तुम बाह्य शरीर का वैचित्र्य स्वीकार करते हो तो आभ्यन्तर कामण शरीर को भी तुम्हें विचित्र मानना चाहिए / [1632] ___ अग्निभूति-बाह्य स्थूल शरीर दिखाई देता है, अतः उसका वैचित्र्य रवीकार करने में कोई आपत्ति नहीं हो सकती। किन्तु कार्मरण शरीर सूक्ष्म भी है और आभ्यन्तर भी, अतः वह दिखाई नहीं देता; इसलिए उसका अस्तित्व ही प्रसिद्ध है तो उसकी विचित्रता की बात ही कहाँ से होगी ? इसलिए स्थूल शरीर से भिन्न कार्मरण शरीर को यदि न माना जाए तो इसमें क्या हानि है ? कार्मरण देह स्थूल शरीर से भिन्न है __भगवान् ---मृत्यु के समय आत्मा स्थूल शरीर को सर्वथा छोड़ देती है। तुम्हारे मतानुसार स्थूल शरीर से भिन्न कोई कार्मरण शरीर नहीं है, अतः आत्मा में नवीन शरीर ग्रहण करने का कोई कारण विद्यमान नहीं है। ऐसी परिस्थिति में संसार का अभाव होगा और सभी जीव अनायास ही मुक्त हो जाएंगे। कार्मरण शरीर का पृथक् अस्तित्व स्वीकार न करने में यह आपत्ति है। यदि तुम यह कहो कि शरीर-रहित जीव भी संसार में भ्रमण कर सकता है तो फिर तुम्हें संसार निष्कारण मानना पड़ेगा / अर्थात् यह बात स्वीकार करनी होगी कि संसार का कोई भी कारण नहीं / फलतः मुक्त जीवों का भी पुनः भवभ्रमण स्वीकार करना पड़ेगा। ऐसी अवस्था में जीव मोक्ष के लिए प्रयत्न ही क्यों करेंगे ? मोक्ष पर उनका विश्वास ही नहीं होगा / कार्मरण शरीर को पृथक् न मानने में ये सब दोष हैं / उनके निवारणार्थ उसे स्थूल शरीर से भिन्न मानना चाहिए। __ अग्निभूति- किन्तु मूर्त कर्म का अमूर्त आत्मा से सम्बन्ध कैसे होगा? मूर्त कर्म का अमूर्त प्रात्मा से सम्बन्ध ___ भगवान्-हे सौम्य ! घट मूर्त है, फिर भी उसका संयोग सम्बन्ध अमूर्त आकाश से होता है, इसी प्रकार मूर्त कर्म का अमूर्त आत्मा से संयोग होता है। अथवा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org