________________ गणधरवाद [ गणधर है / जिसका कार्य परिणामी हो, वह स्वयं भी परिणामी होता है / जैसे दूध का कार्य दही का परिणामी होने के कारण अर्थात् दही के छाछ रूप में परिणत होने के कारण उसका कारण रूप दूध भी परिणामी है, वैसे ही कर्म के कार्य शरीर के परिणामी (विकारी) होने के कारण कर्म स्वयं भी परिणामी है। अतः कर्म के परिणामी होने का हेतु असिद्ध नहीं / [1623] अग्निभूति-आपने सुख-दुःख के हेतु रूप कर्म की सिद्धि की और समान साधनों के अस्तित्व में जिस फल-विचित्रता का अनुभव होता है वह कर्म के बिना सम्भव नहीं, यह भी बताया किन्तु बादलों में विचित्र प्रकार के विकार होते हैं और उनका कारण कर्म की विचित्रता नहीं। इसी प्रकार संसारी जीव के सुख दुःख की तरतमता रूप विचित्रता भी कर्म की विचित्रता के बिना ही मानने में क्या दोष है ? [1626] - कर्म विचित्र है __ भगवान् -सौम्य ! यदि तुम बाह्य स्कन्धों को विचित्र मानते हो तो आन्तरिक कर्म में कौनसी ऐसी विशेषता है जिसके कारण दोनों के पुगलरूप में समान होने पर भी बादल अादि बाह्य स्कन्धों की विचित्रता को तो तुम सिद्ध मानो और कर्म की विचित्रता को सिद्ध न मानो। वस्तुतः जीव के साथ सम्बद्ध कर्मपुद्गलों को तो तुम्हें विचित्र मानना ही चाहिए, कारण यह है कि अन्य बाह्य पुद्गलों की अपेक्षा आन्तरिक कर्म-पुद्गलों में यह विशेषता है कि वे जीव द्वारा गृहीत हुए हैं, इसी कारण वे जीवगत विवित्र सुख-दुःख के कारण भी बनते हैं। [1630] पुनश्च, जिन पुद्गलों को जीव ने गृहीत नहीं किया, उन्हें भी यदि तुम विचित्र मानते हो तो जीव द्वारा गृहीत कर्म-पुद्गलों को तो तुम्हें विशेषरूपेण विचित्र मानना ही चाहिए। जिस प्रकार बिना किसी के प्रयत्न के स्वाभाविक रूपेण बादल आदि पुद्गलों में इन्द्रधनुष आदि रूप जो विचित्रता होती है उसकी अपेक्षा किसी कारीगर द्वारा बनाए गए पुद्गलों में एक विशिष्ट प्रकार की विचित्रता होती है; उसी प्रकार जीव द्वारा गृहीत कर्म-पुद्गलों में नाना प्रकार के सुख-दुःख उत्पन्न करने की विशिष्ट प्रकार की परिणाम-विचित्रता क्यों नहीं होगी ? [1631] अग्निभूति --यदि इस प्रकार आप बादलों के विकार के समान कर्म-प्रगलों में भी विचित्रता स्वीकार करते हैं तो मेरा अब यह प्रश्न है कि बादलों की विचित्र के समान अपने शरीर में ही स्वाभाविक रूपेण नाना प्रकार के सुख दुःख उत्पन्न करने वाली विचित्रता क्यों न मानी जाए ? और यदि बादलों के समान 1. गा० 1612-13 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org