________________ अग्निभूति ] कर्म-अस्तित्व-चर्चा भी मूर्त है, वैसे कम भी मूर्त ही है / जो कार्य अमूर्त होता है, उसका कारण भी अमूर्त होता है; जैसे ज्ञान का समवायि कारण (उपादान कारण) प्रात्मा। अग्नि भूति-सुख-दुःख भी कर्म का कार्य है, अतः कर्म को अमूर्त भी मानना चाहिए, क्योंकि सुख-दुःख भी अमूर्त है / ऐसी बात स्वीकार करने से कर्म मूर्त और अमूर्त सिद्ध होगा / यह सम्भव नहीं, क्योंकि इनमें विरोध है / जो अमूर्त है वह मूर्त नहीं होता और जो मूर्त है वह अमूर्त नहीं होता। भगवान्–जब मैं इस नियम का प्रतिपादन करता हूँ कि मूर्त कार्य का मूर्त कारण तथा अमूर्त कार्य का अमूर्त कारण होना चाहिए, तब उस कारण का तात्पर्य समवायि अथवा उपादान कारण है, अन्य नहीं / सुख-दुःख आदि कार्य का समवायि कारण आत्मा है और वह अमूर्त ही है / कर्म तो सुख-दुःखादि का अन्न आदि के समान निमित्त कारण है / अतः नियम निधि है / [1625] . अग्निभूति-कर्म को मूर्त मानने में यदि कुछ अन्य हेतु भी हैं, तो बताएँ / भगवान्—(१) कर्म मूर्त है, क्योंकि उस से सम्बन्ध होने से सुख आदि का अनुभव होता है, जैसे कि खाद्य आदि भोजन / जो अमूर्त हो, उससे सम्बन्ध होने पर सुख प्रादि का अनुभव नहीं होता, जैसे कि आकाश / कर्म का सम्बन्ध होने पर आत्मा सुख आदि का अनुभव करती है, अतः कर्म मूर्त है। (2) कर्म मूर्त है, क्योंकि उसके सम्बन्ध से वेदना का अनुभव होता है। जिससे सम्बद्ध होने पर वेदना का अनुभव हो वह मूर्त होता है, जैसे कि अग्नि / कर्म का सम्बन्ध होने पर वेदना का अनुभव होता है, अतः वह मूर्त होना चाहिए। (3) कर्म मूर्त है, क्योंकि आत्मा और उस के ज्ञानादि धर्मों से भिन्न बाह्य पदार्थ से उसमें बलाधान होता है- अर्थात् स्निग्धता आती है। जैसे घड़े आदि पर तेल आदि बाह्य वस्तु का विलेपन करने से बलाधान होता है, वैसे ही कर्म में भी माला, चंदन, वनिता आदि बाह्य वस्तु के संसर्ग से बलाधान होता है, अतः वह घट के समान मूर्त है / (4) कर्म मूर्त है, क्योंकि वह आत्मा आदि से भिन्न होने पर परिणामी है, जैसे की दूध / जैसे आत्मादि से भिन्न-रूप दूध परिणामी होने के कारण मूर्त है वैसे ही कर्म मूर्त है / [1626-27] अग्निभूति-कर्म का परिणामी होना सिद्ध नहीं, अतः इस हेतु से कर्म मूर्त सिद्ध नहीं हो सकता। कर्म परिणामी है भगवान्--कर्म परिणामी है, क्योंकि उसका कार्य शरीर आदि परिणामी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org