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________________ 36 गणधरवाद [ गणधर अशुभ क्रिया करने वालों ने तो मांसादि दृष्ट फल की ही इच्छा की थी और उन्हें भी उसकी प्राप्ति हो गई तो फिर उनकी संसार वृद्धि क्यों हो? भगवान --- असंगति क्यों नहीं? यदि हिंसादि क्रियाएँ करने वाले सभी मोक्ष ही जाते रहें तो फिर इस संसार में हिंसादि क्रिया करने वाला कोई भी न रहे और हिंसादि क्रिया का फल भोगते वाला भी कोई न रहे / केवल दानादि शुभ क्रियाएँ करने वाले और इनका फल भोगने वाले ही संसार में रह जाएंगे। किन्तु संसार में यह बात दिखाई नहीं देती। उसमें उक्त दोनों प्रकार के जीव दृष्टिगोचर होते हैं। [1621] अनिष्ट रूप अदृष्ट का फल की प्राप्ति के लिए इच्छा पूर्वक कोई भी जीव कोई क्रिया नहीं करता फिर भी इस संसार में अनिष्ट फल भोगने वाले अत्यधिक जीव दृष्टिगोचर होते हैं / अतः हमें मानना पड़ेगा कि प्रत्येक क्रिया का अदृष्ट फल होता ही है। अर्थात् क्रिया शुभ हो अथवा अशुभ, उसका अदृष्ट रूप फल कर्म अवश्य होता है। इससे विपरीत दृष्ट फल की इच्छा करने पर दृष्ट फल की प्राप्ति अवश्य ही हो, ऐसा एकान्त नियम नहीं है। ऐसी स्थिति का कारण भी पूर्वबद्ध अदृष्ट कर्म ही होता है। सारांश यह है कि दृष्ट फल धान्य आदि के लिए कृषि आदि कर्म करने पर भी पूर्व-कर्म के कारण धान्य आदि दृष्ट फल शायद न भी मिले, किन्तु अदृष्ट कर्म रूप फल तो अवश्य मिलेगा ही। कारण यह है कि चेतन द्वारा प्रारम्भ की गई कोई भी क्रिया निष्फल नहीं होती [1622-23] अथवा यह समस्त चर्चा अनावश्यक है। कारण यह है कि तुल्य साधनों की उपस्थिति में भी फल की विशेषता अथवा तरतमता के कारण कर्म की सिद्धि पहले ही की जा चुकी है। वहाँ यह बात स्पष्ट कर दी गई है कि फल विशेष कार्य है, अतः इसका कारण अदृष्ट कर्म होना चाहिए, जैसे घट का कारण परमाणु हैं। इसी कम की सिद्धि प्रस्तुत अनुमान में भी की गई है कि सचेतन-क्रिया का कोई ऐसा अदृष्ट कर्म रूप फल होना चाहिए जो उस क्रिया से भिन्न हो, क्योंकि कार्यकारण में भेद होता है / यहाँ क्रिया कारण है और कम कार्य है, अतः ये दोनों भिन्न-भिन्न होने चाहिएँ / [1624] अग्निभूति-यदि कार्य के अस्तित्व से कारण को सिद्धि होती हो तो शरीर आदि कार्य के मूर्त होने के कारण उसका कारण भी मूर्त ही होना चाहिए। अदृष्ट होने पर भी कर्न मूर्त है भगवान-मैंने यह कब कहा कि कर्म अमूर्त है। मैं कर्म को मूर्त ही मानता हूँ, क्योंकि उसका कार्य मूर्त है। जैसे परमाणु का कार्य घट मूर्त होने से परमाणु 1. गा० 1663 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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