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________________ 34 गणधरवाद [ गणधर दानादि का फल मनःप्रसाद और उसका भी फल दानादि / आप मनःप्रसाद का अदृष्ट फल कर्म बताते हैं, उसके स्थान में दृष्ट फल दानादि ही मानना चाहिए। भगवान् --कार्य-कारण की परम्परा के मूल में जाने पर हमें ज्ञात होगा कि मनःप्रसाद रूप क्रिया का कारण दानादि क्रिया है / अतः दानादि क्रिया मनः प्रसाद का कार्य अथवा फल नहीं हो सकती, जैसे कि मृत्पिण्ड घट का कारण है, वह घट का कार्य नहीं बन सकता / अर्थात् जैसे मृत्पिण्ड से तो घड़ा उत्पन्न होता है किन्तु घड़े से पिण्ड उत्पन्न नहीं होता, वैसे ही सुपात्र को दान देने से मनः प्रसाद उत्पन्न होता है; हम यह नहीं कह सकते कि मनःप्रसाद से दान की उत्पत्ति हुई / कारण यह है कि जो जिसका कारण होता है, वह उसी का फल नहीं हो सकता / [1617] अग्निभूति-आपने कृषि का दृष्टान्त दिया है और इस दृष्टान्त से आप सचेतन की समस्त क्रिया को फलवती सिद्ध करना चाहते हैं, किन्तु कृषि का धान्यादि फल दृष्ट है, अतः सचेतन की समस्त क्रिया का फल कृषि के फल धान्य के समान दृष्ट ही मानना चाहिए; अदृष्ट कर्म मानने की क्या आवश्यकता है ? हम देखते हैं कि संसार में लोग पशु का वध करते हैं, वह किसी अधर्मरूप प्रष्ट कर्म के लिए नहीं किया जाता, अपितु माँस खाने को मिले, इसी उद्देश्य से पशु-हिंसा करते हैं। इसी प्रकार सभी क्रियाओं का कोई न कोई इष्ट फल ही स्वीकार करना चाहिए, अदृष्ट फल को मानना अनावश्यक है / [1618] __ अपि च, यह भी हमारे अनुभव की बात है कि प्रायः लोग कृषि, व्यापार ग्रादि जो भी क्रिया करते हैं वह सब दृष्ट फल के लिए ही करते हैं / अदृष्ट फल के लिए दानादि क्रिया करने वाला व्यक्ति शायद ही कोई हो। दृष्ट यश की प्राप्ति के लिए दानादि जैसी क्रियाओं को करने वाले बहुत लोग हैं और बहुत कम लोग अदृष्ट कर्म के निमित्त दानादि करते होंगे। अतः सचेतन की सभी क्रियाओं का फल दृष्ट ही मानना चाहिए। [1616] क्रिया का फल अदृष्ट है भगवान्--सौम्य ! तुम कहते हो कि अदृष्ट फल के लिए दानादि शुभ क्रियानों को करने वाले लोग बहुत कम हैं और अधिकतर लोग दृष्ट फल के लिए ही कृषि, वाणिज्य, हिंसा आदि अशुभ क्रियाएँ करते देखे जाते हैं / किन्त, इस बात से ही यह प्रमाणित होता है कि कृषि प्रादि क्रि याओं का दृष्ट के अतिरिक्त अदृष्ट फल भी होना चाहिए। वे लोग चाहे अदृष्ट अधर्म के लिए अशुभ क्रियाएँ न करते हों, फिर भी उन्हें उनका फल मिले बिना नहीं रहता। अन्यथा इस संसार में अनन्त जीवों का अस्तित्व घटित नहीं हो सकता, क्योंकि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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