________________ अग्निभूति ] कर्म-अस्तित्व-चर्चा __ भगवान्-तुम इस बात को स्वीकार करोगे कि बुद्धिमान् चेतन जो क्रिया करता है वह उसे फलवती मान कर ही करता है। फिर भी जहाँ क्रिया का फल नहीं मिलता, वहाँ उसका अज्ञान अथवा सामग्री की विकलता या न्यूनता इस बात का कारण होता है / अतः सचेतन द्वारा आरम्भ की गई क्रिया को निष्फल नहीं माना जा सकता / यदि ऐसी बात हो तो सचेतन पुरुष ऐसी निष्फल क्रिया में प्रवृत्ति ही क्यों करेगा? यह तो मैं भी स्वीकार करता हूँ कि यदि दानादि क्रिया भी मनः शुद्धि पूर्वक नहीं की जाती तो उसका कुछ भी फल नहीं मिलता। अतः मेरे कथन का तात्पर्य इतना ही है कि यदि सामग्री का साकल्य अथवा पूर्णता हो तो सचेतन द्वारा प्रारब्ध क्रिया निष्फल नहीं होती। __ अग्निभूति-आपके कथन के अनुसार दानादि क्रिया का फल भले ही हो, किन्तु जैसे कृषि आदि क्रिया का दृष्ट फल धान्यादि है, वैसे दानादि क्रिया का भी सब के अनुभव से सिद्ध मनःप्रसाद रूप इष्ट फल ही मानना चाहिए, परन्तु कर्मरूप अदृष्ट फल नहीं मानना चाहिए / इस प्रकार तुम्हारा हेतु अभिप्रेत अदृष्ट कर्म के स्थान पर दृष्ट फल का साधक होने से विरुद्ध हेत्वाभास है। [1615] भगवान् -तुम भूलते हो। मनःप्रसाद भी एक क्रिया है अतः सचेतन की अन्य क्रियाओं के समान उसका भी फल होना चाहिए। वह फल कर्म है, अतः मेरे इस नियम में कोई दोष नहीं कि सचेतन द्वारा प्रारम्भ की गई क्रिया फलवती होती है। अग्निभूति—मनःप्रसाद का फल भी कर्म है, यह बात आप कैसे कहते हैं ? भगवान्–क्योंकि उस कर्म का कार्य सुख-दुःख भविष्य में पुनः हमारे * अनुभव में आते हैं। अग्निभूति -आपने पहले दानादि क्रिया को कर्म का कारण बताया और और अब मनःप्रसाद को कर्म का कारण बताते हैं; अतः आपके कथन में पूर्वापर विरोध है। भगवान्-बात यह है कि कर्म का कारण तो मनःप्रसाद ही है, किन्तु इस मनःप्रसाद का कारण दानादि क्रिया है / अतः कर्म के कारण के कारण में कारण का उपचार करके दानादि क्रिया को कर्म का कारण रूप माना जाता है / इस तरह पूर्वापर विरोध का परिहार हो जाता है / [1616] अग्निभूति-इस सारे झगड़े को छोड़ कर सरल मार्ग से विचार किया जाए तो यह बात स्पष्ट हो जाएगी कि मनुष्य जब मन में प्रसन्न होता है तब ही वह दानादि करता है / दानादि करने पर उसे बाद में मनःप्रसाद प्राप्त होता है ; इसलिए वह पुनः दानादि करता है / इस तरह मनःप्रसाद का फल दानादि है तथा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org