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________________ 32 गणाधरवोद [ गणधर अग्निभूति-पूर्वोक्त अनुमान से इतनी बात ही सिद्ध होती है कि बाल शरीर देहान्तर पूर्वक है; अतः कार्मण शरीर के स्थान पर पूर्व भवीय अतीत शरीर को ही बाल गरीर के पहले का शरीर अर्थात् उसका कारण मानना चाहिए। कार्मण शरीर की सिद्धि भगवान्-पूर्वभव के अतीत शरीर को बाल शरीर का कारण नहीं माना जा सकता; क्योंकि अन्तराल गति में उसका सदन्तर अभाव ही होता है / अतः बाल शरीर पूर्वभवीय अतीत शरीर पूर्वक सम्भव ही नहीं है। अन्तराल गति में पूर्वभवीय शरीर का सद्भाव इसलिए नहीं है कि मृत्यु होने के पश्चात् जीव उस ओर गति करता है जहाँ नवीन जन्म होना हो। उस समय पूर्वभवीय शरीर छूट जाता है अोर नवीन शरीर का अभी ग्रहण नहीं होता। अतः अन्तराल गति में जीव औदारिक अथवा स्थूल शरीर से तो सर्वथा रहित होता है। इससे बाल शरीर को पूर्वभवीय औदारिक शरीर का कार्य नहीं कहा जा सकता। तब हम यह कैसे कह सकते हैं कि वह पूर्व भव के शरीर पूर्वक है ? और यदि जीव के कोई भी शरीर न हो तो वह नियत गर्भ देश में कैसे जा सकता है ? अतः नियत देश में प्राप्ति का कारणभूत तथा नूतन शरीर की रचना का कारणभूत कोई शरीर को स्वीकार करना ही होगा। जैसे कहा जा चुका है, उसके अनुसार ऐसा कारण औदारिक शरीर तो नहीं हो सकता। अतः कर्मरूप कार्मण को ही बाल देह का कारण ससझना चाहिए / जीव अपने स्वभाव से ही नियत देश में पहुँच जाएगा, यह मान्यता ठीक नहीं। इस विषय को मैं आगे स्पष्ट करूगा। शास्त्र में भी कहा है, 'मृत्यु के उपरान्त जीव कार्मण योग से आहार करता है। अतः बाल शरीर को कार्मण शरीर पूर्वक मानना चाहिए। [1614] चेतन की क्रिया सफल होने के कारण कर्म की सिद्धि कर्म साधक तीसरा अनुमान यह है-दानादि क्रिया का कुछ फल होना ही चाहिए, क्योंकि वह सचेतन व्यक्ति द्वारा की गई क्रिया है, जैसे कि कृषि क्रिया। सचेतन पुरुष कृषि क्रिया करता है तो उसे उस का फल धान्यादि प्राप्त होता है, उसी प्रकार दानादि क्रिया का कर्ता भी सचेतन है, अतः उसे उसका कुछ न कुछ फल मिलना चाहिए / जो फल प्राप्त होता है वह कम है। अग्निभूति-पुरुष कृषि करता है किन्तु अनेक बार उसे धान्यादि फल की प्राप्ति नहीं भी होती; अतः आपका यह हेतु व्यभिचारी है। इसीलिए यह नियम नहीं बनाया जा सकता कि सचेतन द्वारा प्रारम्भ की गई क्रिया का कोई फल अवश्य होना चाहिए। 1. "जोएण कम्मएणं पाहारेई अणंतरं जीवो।" सूत्रकृतांग नियुक्ति 177 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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