________________ अग्निभूति] कर्म के अस्तित्व की चर्चा 31 कर्मसाधक अनुमान भगवान्–सुख-दुःख का कोई हेतु अथवा कारण होना चाहिए, क्योंकि वे कार्य हैं; जैसे अंकुर रूप कार्य का हेतु बीज है / सुख-दुःख रूप कार्य का जो हेतु है, वही कर्म है। सुख-दुःख मात्र दृष्टकारणाधीन नहीं ___अग्निभूति-यदि सुख-दुःख का दृष्ट कारण सिद्ध हो तो अदृष्ट-रूप कर्म को मानने की क्या आवश्यकता है ? हम देखते हैं कि सुगन्धित फूलों की माला, चन्दन आदि पदार्थ सुख के हेतु हैं और साँप का विष, काँटा आदि पदार्थ दुःख के हेतु हैं / जब इन सब दृष्ट कारणों से सुख-दुःख होता हो तब उसका अदृष्ट कारण कर्म क्यों माना आए ? भगवान्- दृष्ट कारण में व्यभिचार दृष्टिगोचर होता है, अतः अदृष्ट कारण मानना पड़ता है। [1612] अग्निभूति-यह कैसे ? भगवान्- सुख-दुःख के दृष्ट साधन अथवा कारण समान रूप से उपस्थित होने पर भी उन के फल में (कार्य में) जो तारतम्य (विशेषता) दिखाई देता है वह निष्कारण नहीं हो सकता, क्योंकि यह विशेषता घट के समान ही कार्य-रूप है। अतः उस विशेषता का कोई जनक (हेतु) मानना ही चाहिए और वही कर्म है। जैसे कि सुख-दुःख के बाह्य साधन समान होने पर भी दो व्यक्तियों को उन से मिलने वाले सुख-दुःख रूप फल में तारतम्य दृष्टिगोचर होता है। अर्थात् जिन साधनों से एक को सुख मिलता है, उनसे दूसरे को कम या अधिक मिलता है। तुमने माला को सुख का दृष्ट कारण माना है, किन्तु यदि इसी माला को कुत्ते के गले में डाली जाए तो वह उसे दुःख का कारण मान कर उससे छटने का प्रयत्न क्यों करता है ? फिर विष भी यदि सर्वथा दुःखदायी ही हो तो कितने ही रोगों में वह रोग निवारण द्वारा जीव को सुख क्यों प्रदान करे ? अतः मानना पड़ेगा कि माला आदि सुख-दुःख के जो बाह्य साधन दिखाई देते हैं, उनके अतिरिक्त भी उन से भिन्न और अन्तरंग कर्मरूप अदृष्ट कारण भी सुख-दुःख का हेतु है। [1613] कर्म-साधक अन्य अनुमान कर्म का साधक एक अन्य प्रमाण यह है-आद्य बाल शरीर देहान्तर पूर्वक है--अर्थात् देहान्तर का कार्य है, क्योंकि वह इन्द्रिय आदि से युक्त है; जैसे कि युवा शरीर, यह बाल शरीर पूर्वक है। प्रस्तुत हेतु में आदि पद से सुख-दुःख, प्राणवान् , निमेष-उन्मेष, जीवन आदि धर्म भी समझ लेने चाहिए और इन धर्मों को भी हेतु बना कर उक्त साध्य की सिद्धि कर लेनी चाहिए। प्राद्य बाल शरीर जिस देहपूर्वक है, वह कार्मण शरीर अर्थात् कर्म है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org