________________ 30 गणधरवाद [ गणधर कर्म किसी भी प्रमाण का विषय नहीं--वह सर्व प्रमाणातीत है / अपने इस मात की पुष्टि के लिए तुम वेद के 'पुरुष एवेदं सर्ग'1 इत्यादि वाक्यों का प्राश्रय लेते हो और कहते हो कि कर्म का अस्तित्व नहीं है; किन्तु वेद में ऐसे भी वाक्य उपलब्ध होते हैं जिन से कर्म का अस्तित्व मानना पड़ता है। जैसे कि 'पुण्य पुण्येन कर्मणा पापः पापेन कर्मणा' अर्थात् पुण्य कर्म से जीव पवित्र होता है और पाप कर्म से अपवित्र होता है, इत्यादि / इससे तुम्हें सन्देह होता है कि वस्तुतः कर्म है या नहीं ? कर्म की सिद्धि आपने मेरे सन्देह का कथन तो ठीक-ठीक कर दिया है, किन्तु यदि आप उसका समाधान भी करें तो मुझे आप की विद्वत्ता पर विश्वास हो जाएगा। भगवान्–सौम्य ! तुम्हारा उक्त संशय अयुक्त है, क्योंकि मैं कर्म को प्रत्यक्ष देखता हूँ। तुम्हें चाहे वह प्रत्यक्ष नहीं है, किन्तु तुम अनुमान से उसकी सिद्धि कर सकते हो। कारण यह है कि सुख-दुःख की अनुभूति-रूप कर्म का फल (कार्य) तो तुम्हें प्रत्यक्ष ही है। इसलिए अनुमानगम्य होने के कारण कर्म को सर्व प्रमाणातीत नहीं कहा जा सकता। अग्निभूति-किन्तु यदि कर्म की सत्ता है तो आपके समान मुझे भी उसका प्रत्यक्ष क्यों नहीं होता? भगवान्-यह कोई नियम नहीं है कि जो वस्तु एक को प्रत्यक्ष हो वह सब को ही प्रत्यक्ष होनी चाहिए। सिंह, व्याघ्र आदि अनेक ऐसी वस्तुएं हैं जिनका प्रत्यक्ष सभी मनुष्यों को नहीं होता, तथापि यह कोई नहीं मानता कि संसार में सिंह आदि प्राणी नहीं है / अतः सर्वज्ञ-रूप मेरे द्वारा प्रत्यक्ष किए गए कर्म का अस्तित्व तुम्हें स्वोकार करना ही चाहिए; जैसे मैंने तुम्हारे संशय का प्रत्यक्ष कर लिया और तुमने उसका अस्तित्व मान लिया था / __ अपि च, अतीन्द्रिय होने के कारण तुम परमाणु का प्रत्यक्ष तो नहीं करते, परन्तु उसका कार्य-रूप प्रत्यक्ष तो तुम मानते ही हो। कारण यह है कि तुम्हें परमाणु के घटादि कार्य प्रत्यक्ष है। इसी प्रकार तुम्हें कर्म स्वयं चाहे प्रत्यक्ष न हो, तथापि उसका फल (कार्य) सुख-दुःखादि तो प्रत्यक्ष ही है। अतः तुम्हें कर्म का कार्य-रूप में प्रत्यक्ष मानना ही चाहिए। [1611] - अग्निभूति-आपने पहले कहा था कि कर्म अनुमानगम्य है। अब आप वह अनुमान बताए / 1. गाया 1581 देखें / इसकी विशेष चर्चा पागे गाथा 1643 में पाएगी। '2. इसकी विशेष चर्चा 1643 में है / यह वाक्य बृहदारण्यक उप० (4.4.5.) में है। 3. ऐसी चर्चा, गाथा 1577-79 में देखें। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org