________________ द्वितीय गणधर अग्निभूति कर्म के अस्तित्व की चर्चा इन्द्रभूति की दीक्षा की बात सुन कर उसके छोटे भाई दूसरे विद्वान् अग्निभूति के मन में यह विचार उत्पन्न हुआ कि मैं भगवान् महावीर के पास जाकर और उन्हें पराजित कर इन्द्रभूति को वापिस ले आऊँ। यह विचार कर वह ऋद्ध होता हुआ भगवान् के समीप पहुँचा / वह समझता था कि मेरा बड़ा भाई शास्त्रार्थ में तो अजेय है, निश्चय पूर्वक श्रमण महावीर ने उसे छल कपट से ठगा होगा। यह श्रमण कोई इन्द्रजालिक या मायावी होना चाहिए / न जाने उसने क्या-क्या किया होगा ? वहाँ जो कुछ हुआ है; उसे मैं अपनी आँखों से देख और इस भेद का उद्घाटन करूं। यह भी सम्भव है कि इन्द्रभूति को उन्होंने पराजित भी किया हो। यदि वे मेरे किसी भी पक्ष का पार पा जाए (मेरे सन्देह का निराकरण कर दें) तो मैं भी उनका शिष्य बन जाऊँगा। ऐसा कह कर वह भगवान् के पास जा पहुँचा। [1606-1608] जन्म-जरा-मरण से मुक्त भगवान् ने उसे नाम और गोत्र से सम्बोधित करते हुए कहा, "अग्निभूति गौतम ! आओ' / कारण यह है कि भगवान् सर्वज्ञ सर्वदर्शी थे। किन्तु अग्निभूति ने विचार किया कि मुझे संसार में कौन नहीं जानता ? अतः उन्होंने मुझे मेरे नाम व गोत्र से बुलाया, इसमें कोई नई बात नहीं है; किन्तु यदि वे मेरे मन के संशय को जान लें अथवा दूर कर दें तो अवश्य ही आश्चर्य की बात होगी। [1606] कर्म के विषय में संशय इस प्रकार जब वह विचार में तल्लीन था, तब भगवान ने उससे कहाअग्निभूति ! तुम्हारे मन में यह सन्देह है कि कर्म है अथवा नहीं ? किन्तु तुम वेदपदों का अर्थ नहीं जानते, इसीलिए तुम्हें ऐसा सन्देह है। मैं तुम्हें उनका वास्तविक अर्थ बताऊँगा / [1610] हे अग्निभूति ! तुम यह समझते हो कि कर्म प्रत्यक्ष प्रादि किसी भी ज्ञान का विषय नहीं होता, वह सर्व प्रमाणातीत है, क्योंकि वह खर-विषाण के समान अतीन्द्रिय होने से प्रत्यक्ष नहीं है। इस प्रकार जैसे इन्द्रभूति प्रत्यक्ष आदि सब प्रमाणों से जीव को अग्राह्य सिद्ध करता था, वैसे ही तुम यह सिद्ध करते हो कि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org