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________________ 281 गरणधरवाद [ गणधर भगवान् -क्योंकि संसार की सभी वस्तुएं सर्वमय हैं। इन्द्रभूति-यह कैसे ? वस्तु की सर्वमयता भगवान्-वस्तु की पर्याय दो प्रकार की हैं- स्वपर्याय तथा परपर्याय / इन दोनों पर्यायों की अपेक्षा से विचार किया जाए तो वस्तु सामान्य रूप से सर्वमय सिद्ध होती है किन्तु यदि केवल स्वपर्यायों की विवक्षा की जाए तो सनवस्तु विविक्त है, सब से व्यावृत्त है, असर्वमय है / इस प्रकार यदि वेद के प्रत्येक पद का अर्थ विवक्षाधीन समझा जाए तो वह सामान्य विशेषात्मक ही होगा। किन्तु यह नहीं कहा जा सकता कि वह अमुक प्रकार का ही है, और अमुक प्रकार का है ही नहीं। कारण यह है कि वस्तु वाच्य-रूप हो अथवा वाचक (शब्द) रूप हो, किन्तु स्व-पर-पर्याय की दृष्टि से तो विश्व-रूप ही है ? अतः सामान्य विवक्षा से 'घट' शब्द सर्वात्मक होने के कारण द्रव्य, गुण, क्रिया आदि समस्त अर्थों का वाचक है, किन्तु विशेषापेक्षा से वह प्रतिनियत रूप होने के कारण विशिष्ट आकार वाले मिट्टी आदि के पिण्ड का ही वाचक होता है। यही बात प्रत्येक शब्द के विषय में कही जा सकती है कि वह सामान्य विवक्षा से सभी अर्थों का वाचक हो सकता है, किन्तु विशेषापेक्षा से जिस एक अर्थ में वह रूढ़ होता है उसी का वाचक बनता है। [1602-1603] इस प्रकार जब जरा-मरण से मुक्त भगवान् महावीर ने इन्द्रभूति का संशय दूर किया, तब उसने अपने पांचसौ शिष्यों के साथ भगवान् से दीक्षा ग्रहण कर ली। [1604] आगे कर्म आदि की चर्चा के समय इस चर्चा के साथ जिस अंश में सदृशता हो, उसका वहाँ सम्बन्ध जोड़ कर चर्चा का मर्म समझ लेना चाहिए। उसमें जो विशेषता होगी, वह मैं प्रतिपादित करूंगा। (ऐसा आचार्य जिनभद्र कहते हैं।) [1605] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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