________________ इन्द्रभूति ] जीव के अस्तित्व सम्बन्धी चर्चा [ 27 इन्द्रभूति-वेद के कौन से वाक्य में यह कहा गया है कि भूत के अभाव में भी विज्ञान है ? भगवान-वेद में एक वाक्य है- 'अस्तमिते आदित्ये याज्ञवल्क्य ! चन्द्रमस्यस्तमिते, शान्तेऽग्नौ, शान्तायां वाचि, किं ज्योतिरेवायं पुरुषः ? आत्मज्योतिरेवायं सम्राडिति होवाच / ' अर्थात् हे याज्ञवल्क्य ! जब सूर्य अस्त हो जाता है, चन्द्र प्रस्त हो जाता है, अग्नि शान्त हो जाती है, वचन शान्त हो जाता है, तब पुरुष में कौन सी ज्योति होती है ? हे सम्राट् ! उस समय प्रात्म-ज्योति ही होती है। इस वाक्य में पुरुष में कौन सा तेज है ? इस प्रश्न के उत्तर में बताया गया है कि पुरुष आत्म-ज्योति है। प्रस्तुत में पुरुष का अर्थ आत्मा है और ज्योति का अर्थ ज्ञान है / तात्पर्य यह है कि जब बाह्य समस्त प्रकाश अस्त हो जाता है तब भी आत्मा में ज्ञान का प्रकाश तो होता ही है। कारण यह है कि आत्मा स्वयं ज्ञान-रूप है। अतः ज्ञान को भूतों का धर्म नहीं कह सकते। [1598] तुमने यह भी कहा है कि भूतों के साथ ज्ञान का अन्वय-व्यतिरेक है, किन्तु यह बात ठीक नहीं है / भूतों के अस्तित्व में भी मृत शरीर में ज्ञान का अभाव होता है और भूतों का अभाव होने पर भी मुक्तावस्था में ज्ञान की सत्ता है। अतः भूतों के साथ ज्ञान का अन्वय-व्यतिरेक प्रसिद्ध है। इसलिए ज्ञान भूत-धर्म नहीं हो सकता / जैसे घट का सद्भाव होने पर नियमपूर्वक पट का सद्भाव नहीं होता तथा घट के अभाव में पट का सद्भाव सम्भव है, अतः पट को घट से भिन्न माना जाएगा; वैसे ही ज्ञान को भी भूतों से भिन्न मानना चाहिए। वह भूतों का धर्म नहीं हो सकता। [1596] वेद-पद का क्या अर्थ है ? इससे सिद्ध होता है कि तुम वेद-पदों का अर्थ नहीं जानते। अथवा यह कहना चाहिए कि तुम समस्त वेद-पदों का अर्थ नहीं जानते / कारण यह है कि वेद-पदों को सुनते समय तुम्हें सन्देह होता है कि इनका क्या अर्थ होगा ? क्या वेद-पद का अर्थ श्रुति-मात्र है ? विज्ञान मात्र है ? अथवा वस्तु-भेद रूप है ? अर्थात् वह अर्थ क्या शब्द रूप है ? अथवा शब्द से होने वाला विज्ञान रूप है ? अथवा बाह्य वस्तु-विशेष रूप है ? बाह्य वस्तु-विशेष में भी क्या जाति रूप अर्थ है ? द्रव्य रूप है ? गुण रूप है ? किंवा क्रिया रूप है ? ऐसा सन्देह तुम्हें सभी वेद-पदों के विषय में है। अतः यह कहा जा सकता है कि तुम वेद के किसी भी पद का अर्थ सम्यक् रूप से नहीं जानते / किन्तु तुम्हारा यह सन्देद अयुक्त है / कारण यह है कि यह निश्चय ही नहीं किया जा सकता कि अमुक वस्तु का धर्म अमुक ही है और अन्य नहीं है / [1600-1601] इन्द्रभूति-आप ऐसा किस लिए कहते हैं ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org