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________________ 26 ] गणधरवाद [ गणधर सन्तति या विज्ञान-सामान्य की अपेक्षा से जीव नित्य है, ध्रव है, अविनाशी है। इस प्रकार संसार के सभी पदार्थ उत्पाद, व्यय तथा ध्रौव्य इन तीन स्वभाव स्वरूप हैं। ऐसा एक भी पदार्थ नहीं जिसका सर्वथा विनाश हो जाता हो अथवा सर्वथा अपूर्व उत्पाद होता हो। [1565] 'न प्रेत्य संज्ञास्ति' इस वाक्यांश का भाव यह है--जब अन्य वस्तु में उपयोग प्रवृत्त होता है, तब पूर्व विषय का ज्ञान नष्ट हो जाने के कारण पूर्वकालीन ज्ञान-संज्ञा नहीं होती, क्योंकि उस समय जीव का उपयोग साम्प्रत (वर्तमान) वस्तु के विषय में होता है। सारांश यह है कि जब घटोपयोग के निवृत्त होने पर पटोपयोग वर्तमान होता है तब घटोपयोग संज्ञा नहीं होतो, क्योंकि यह उपयोग तो निवृत्त हो चुका है। अतः उस समय केवल पटोपयोग संज्ञा होती है, क्योंकि उस समय पटोपयोग वर्तमान होता है। इस प्रकार उक्त वेद-वाक्य में विज्ञानघन पद से जीव का ही कथन किया गया है। ऐसा मान लें तो उस विषय में सन्देह का स्थान नहीं रहता। [1596] इन्द्रभूति--आपने कहा है कि 1घटादि भूतों से विज्ञानघन (जीव) उत्पन्न होता है / इसलिए यदि आप की व्याख्या मान ली जाए तो भी जीव भूतों से स्वतंत्र द्रव्य सिद्ध नहीं होता; प्रत्युत वह भूतों का ही धर्म सिद्ध होता है / अर्थात् विज्ञानघन (जीव) पृथ्वी आदि भूतमय ही सिद्ध होता है, क्योंकि विज्ञान की उत्पत्ति तभी होती है जब भूत हों / यदि भूत न हों तो विज्ञान की उत्पत्ति भी नहीं होती। दूसरे शब्दों में विज्ञान का भूतों से अन्वय-व्यतिरेक है / अतः वह भूतों का ही धर्म है; जैसे चन्द्रिका चाँद का धर्म है। विज्ञान भूत-धर्म नहीं भगवान्—तुम्हारा कथन युक्त नहीं है। कारण यह है कि भूतों के अभाव में भी ज्ञान होता है, अतः भूतों के साथ ज्ञान का व्यतिरेक नियम असिद्ध है। इन्द्रभूति--यह कैसे ? आप ही ने तो पहले कहा था कि भूतों की विज्ञेयरूपता नष्ट होने पर विज्ञान भी नष्ट हो जाता है / अर्थात् भूतों के अभाव में विज्ञान भी नहीं होता / इस प्रकार विज्ञान का भूतों से व्यतिरेक प्रसिद्ध नहीं है / भगवान्--मैंने विज्ञान का सर्वथा अभाव नहीं बताया। विशेष विज्ञान का नाश होने पर भी विज्ञान-सन्तति, विज्ञान (सामान्य) का नाश नहीं होता, यह बात मैं तुम्हें समझा चुका हूँ। तुम उसे विस्मृत क्यों कर रहे हो ? इससे भूतों का विज्ञेय-रूप में नाश होने पर भी सामान्य विज्ञान का प्रभाव नहीं होता / अतः भूतों का विशेष ज्ञान के साथ अन्वय-व्यतिरेक सिद्ध होने पर भी सामान्य विज्ञान के साथ व्यतिरेक प्रसिद्ध है। इसीलिए विज्ञान यह भूत-धर्म नहीं हो सकता / पुनश्च, वेद में भूतों के प्रभाव में भी विज्ञान का अस्तित्व बताया गया है। अतः विज्ञानघन भूत-धर्म नहीं हो सकता। [1597] 1. गाथा 1593 देखें। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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