________________ इन्द्रभूति जीव के अस्तित्व सम्बन्धी चर्चा 25 नैयायिक इत्यादि जो ज्ञान को प्रात्मा का स्वरूप नहीं मानते, के मत में आत्मा जड़ रूप हो जाएगी। 'भूतेभ्यः समुत्थाय' इत्यादि का तात्पर्य यह है--घट-पट आदि भूतों से घट विज्ञान, पट विज्ञान आदि के रूप में विज्ञानघन (जीव) उत्पन्न होता है, क्योंकि ज्ञान की उत्तत्ति ज्ञेय से होती है। प्रस्तूत में घट आदि ज्ञेय पदार्थ भूत हैं, इसलिए यह कहा जा सकता है कि घट आदि भूतों से घट-विज्ञान उत्पन्न हुआ। यह घट-विज्ञान जीव का एक विशेष पर्याय है, और जीव विज्ञानमय है। अतः हम यह कह सकते हैं कि घट-विज्ञान-रूप जीव घट नामक भूत से उत्पन्न हुआ है। इसी प्रकार पट-विज्ञानरूप जीव पट नामक भूत से उत्पन्न हुआ; इत्यादि / इस प्रकार अलग-अलग भौतिक विषयों की अपेक्षा से जीव की अनन्त पर्याय उत्पन्न होती है, और जीव की पर्याय जीव से अभिन्न होने के कारण जीव अमुक-अमुक विज्ञान रूप में भूतों से उत्पन्न होता है। ऐसा मानना उचित ही है [1563] 'तान्येवानु विनश्यति' का अर्थ यह है कि ज्ञान के आलम्बन-रूप भूत जब ज्ञेय रूप में विनाश को प्राप्त होते हैं तब उनसे उत्पन्न होने वाला विज्ञानघन भी नष्ट हो जाता है / अर्थात् जब घटादि की ज्ञेयरूपता नष्ट हो जाती है तब घट-विज्ञान आदि आत्म-पर्याय भी नष्ट हो जाती हैं। उक्त पर्याय विज्ञानघन स्वरूप जीव से अभिन्न होने के कारण विज्ञानघन (जीव) का भी नाश हो जाता है, ऐसा कथन अनुचित नहीं है। विषय का व्यवधान, उसका स्थगित हो जाना, उसके जीवन का लोप हो जाना अन्य विषय में मन का प्रवृत्त होना, इत्यादि कारणों से जब आत्मा अन्य विषय में उपयोग वाली होती है, तब घटादि की ज्ञेय-रूपता का नाश होता है और पट आदि की ज्ञेय-रूपता उत्पन्न होती है / अतः प्रात्मा में घटादि विज्ञान नष्ट होता है और पटादि ज्ञान उत्पन्न होता है। सारांश यह है कि घटादि विज्ञेय भूतों से घरविज्ञानादि पर्याय-रूप में विज्ञानघन (जीव) उत्पन्न होता है और कालक्रमेण व्यवधान आदि के कारण जीव की प्रवृत्ति अन्य विषय में हो जाने से जब घटादि भूतों की विज्ञेयरूपता नष्ट होती है तब घटादि ज्ञान-पर्याय-रूप में विज्ञानघन (जीव) का भी नाश होता है। [1564] जीव नित्यानित्य है इस प्रकार प्रात्मा पूर्व-पर्याय के विगम (नाश) की अपेक्षा से विगम (व्यय) स्वभाव वाली है तथा अपर पर्याय की उत्पत्ति की प्रोक्षा से सम्भव (उत्पाद) स्वभाव वालीहै। हम देख चुके हैं कि घटादि विज्ञान-रूप उपयोग का नाश होने पर पटादि विज्ञानरूप उपयोग उत्पन्न होता है, इससे जीव में उत्पाद और व्यय ये दोनों स्वभाव होने से वह विनाशी सिद्ध होता है। किन्तु विज्ञान की सन्तति की अपेक्षा से विज्ञानघन (जीव) अविनाशी अथवा ध्रव भी सिद्ध होता है / सारांश यह है कि आत्मा में सामान्य विज्ञान का अभाव कभी भी नहीं होता, विशेष विज्ञान का अभाव होता है; अतः विज्ञान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org