________________ 24 गणधरवाद् [ गणधर विज्ञानघन समुद्भूत होता है / यह विज्ञान मात्र आत्मा ही है। इसके अतिरिक्त कोई आत्मा नहीं जो परलोक से आती हो / बाद में वह विज्ञान-रूप आत्मा भूतों का नाश हो जाने पर विनष्ट हो जाती है और इस कारण वह परलोक या परभव में जाती भी नहीं / अर्थात् यह जीव पूर्व-भव में अमुक था और वहाँ से इस जन्म में आया, उसी प्रकार वह जीव यहाँ से मर कर आगामी जन्म में अमुक रूप में होगा, ऐसी कोई जन्मजन्मान्तर में एक जीव (व्यक्ति) के अस्तित्व को बताने वाली प्रेत्यसंज्ञा परलोक-व्यवहार नहीं है / अर्थात् यह बात नहीं है कि अमुक पहले नारक अथवा देव था, किन्तु अब मनुष्य हुआ है। उन वेद-वाक्यों का तुम यह तात्पर्य समझते हो कि जीव एक भव से दूसरे भव में नहीं जाता, क्योंकि वह भूत समुदाय से नया ही उत्पन्न होता है और समुदाय के नाश के साथ नष्ट भी हो जाता है। [1588-60] हे गौतम ! उक्त वेद-वाक्यों का तुम उपर्युक्त रोति से अर्थ करते हो, इसीलिए तुम्हें ऐसा प्रतीत होता है कि जीव है ही नहीं। किन्तु वेद के ही 'न ह वै सशरीरस्य'1 इत्यादि अन्य वाक्यों में जीव का अस्तित्व बताया गया है और फिर 'अग्निहोत्रं जूहयात्'2 इत्यादि वाक्यों में हवन की क्रिया का फल परलोक में स्वर्ग बताया है जो भवान्तर में गमन करने वाली नित्य आत्मा को स्वीकार किए बिना सम्भव नहीं; अतः इस प्रकार जीव के अस्तित्व सम्बन्धी परस्पर विरोधी वेद-वाक्यों के श्रवण से तुम्हें जीव के अस्तित्व के विषय में, मेरी युक्तियाँ सुन लेने पर भी, सन्देह होता है कि वस्तुतः जीव होगा या नहीं। किन्तु, हे गौतम ! अब इस संशय का कोई कारण नहीं / तुमने वेद-पदों का जो पूर्वोक्त अर्थ किया है वह यथार्थ नहीं। मैं तुम्हें जो अर्थ बताता हूँ उसे सुनो। [1561-62] इन्द्रभूति-आप कृपा कर उन वेद-पदों का अर्थ बताए ताकि मेरा संशय दूर हो। भगवान्-उक्त 'विज्ञानघन एव'3 इत्यादि वाक्य में विज्ञान घन शब्द का अर्थ जीव है, क्योंकि विज्ञान का अर्थ है विशेष ज्ञान / ज्ञान-दर्शन रूप ही विज्ञान है। इस विज्ञान से अनन्य (अभिन्न) होने के कारण उसके साथ ही एक रूप घन या निबिड़ होने वाला जीव विज्ञानघन कहलाता है। अथवा इस जीव के प्रत्येक प्रदेश में अनन्तानन्त विज्ञान-पर्यायों का संघात होने के कारण भी जीव को 'विज्ञानघन' कहते हैं। उक्त वाक्य में 'एव' पद का तात्पर्य यह है कि जीव विज्ञानघन ही है, अर्थात् विज्ञान-रूप ही है; विज्ञान जीव का स्वरूप ही है / जीव से विज्ञान अत्यन्त भिन्न नहीं है / यदि विज्ञान जीव से सर्वथा भिन्न हो तो जीव जड़ स्वरूप हो जाएगा। इसलिए 1. गाथा 1553 की व्याख्या देखें। 3. गाथा 1553 की व्याख्या देखें। 2. गाथा 1553 की व्याख्या देखें / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org