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________________ इन्द्रभूति ] जीव के अस्तित्व सम्बन्धी चर्चा 23 जीव को भी दुःखी ही कहना चाहिए, सुखी नहीं। यदि किसी के समस्त शरीर में रोग व्याप्त हो और केवल एक अंगुली ही रोग-मुक्त हो तो उस व्यक्ति को रोगी ही कहते हैं। इसी प्रकार जीवों के अधिकांश भाग में दुःख व्याप्त हो तो जीव को दुःखी ही समझना चाहिए, हम उसे सुखी नहीं कह सकते। फिर किसी जीव के मुक्त होने की भी सम्भावना नहीं रहेगी, अतः वह सुखी भी नहीं हो सकेगा / कारण यह है कि जीवों का अधिकांश भाग तो बद्ध ही है। जैसे किसी के सारे शरीर में कीलें ठोकी गई हों और केवल एक अंगुली ही छोड़ दी गई हो तो उसे स्वतन्त्र नहीं कह सकते, वैसे ही जीव का अधिकांश भाग बद्ध हो तो एकांश के मुक्त होने के कारण उसे मुक्त नहीं माना जा सकता / अतः सभी जीवों को एक मानने से कोई सुखी अथवा मुक्त नहीं कहला सकेगा, फलतः जीव अनेक मानने चाहिए। [1585] इन्द्रभूति-जीव एक नहीं किन्तु अनेक हैं' आपका यह कथन युक्ति सिद्ध है, किन्तु प्रत्येक जीव को जैसे सांख्या आदि दर्शनों में सर्व-व्याप्त माना है, वैसे मानने में क्या आपत्ति है ? जीव सर्व-व्यापी नहीं भगवान् जीव सर्व-व्यापी नहीं किन्तु शरीर-व्यापी है क्योंकि उसके गुण शरीर में ही उपलब्ध होते हैं। जैसे घट के गुण घट से बाह्य देश में उपलब्ध नहीं होते, अतः वह व्यापक नहीं; इसी प्रकार प्रात्मा के गुण भी शरीर से बाहर उपलब्ध नहीं होते, अतः वह शरीर-प्रमाण ही है। अथवा जहाँ जिसकी उपलब्धि प्रमाण सिद्ध नहीं होती अर्थात् जो जहाँ प्रमाण द्वारा अनुपलब्ध है, वहाँ उसका प्रभाव मानना चाहिए; जैसे भिन्न स्वरूप घट में पट का अभाव है। शरीर से बाहर संसारी आत्मा की अनुपलब्धि है, अतः शरीर से बाहर उसका भी अभाव मानना चाहिए / [1586] ___अतः जीव में कर्तृत्व, भोक्तृत्व, बन्ध, मोक्ष, सुख तथा दुःख एवं संसार ये सब तभी युक्तिसंगत होते हैं जब उसे अनेक और शरीर-व्यापी माना जाए। अतः जीव को अनेक और असर्वगत मानना चाहिए / [1587] इन्द्रभूति-अापकी युक्तियाँ सुन कर मैं जीव सम्बन्धी अपने सन्देह को अब छोड़ना चाहता हूँ; किन्तु पहले कहे गए 'विज्ञानघन एवं एतेभ्यः'2 इत्यादि वेदवाक्य मेरे सम्मुख उपस्थित हो जाते हैं। वे मुझे पुनः सन्देह में डाल देते हैं कि यदि जीव . युक्ति-सिद्ध हो तो वेद में ऐसा प्रतिपादन क्यों किया गया ? वेद-वाक्यों का संगतार्थ भगवान् --गौतम ! तुम इन वेद-वाक्यों का सच्चा अर्थ नहीं जानते / इसीलिए तुम ऐसा समझते हो कि पद के अंगों अर्थात् कारणों के समुदाय मात्र से ही 1. टीका में नैयायिक आदि है, किन्तु सांख्य प्राचीन है, अतः मैंने सांख्य प्रादि लिखा है / 2. गाथा 1553 की व्याख्या देखें। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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