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________________ 22 ] गणधरवाद [ गणधर किन्तु जीव के विषय में यह बात नहीं है। वह प्रत्येक पिण्ड में विलक्षण है, अतः उसे सर्वत्र एक नहीं माना जा सकता / यह नियम है कि लक्षण भेद होने पर वस्तु भेद स्वीकार करना चाहिए / तदनुसार यदि जीव के लक्षण प्रत्येक पिण्ड में भिन्न-भिन्न दृग्गोचर हों तो प्रति पिण्ड में जीव पृथक्-पृथक् मानना चाहिए। [1581] इस बात का साधक अनुमान प्रमाण यह है : जीव नाना (भिन्न) हैं, क्योंकि उनमें लक्षण भेद हैं, घटादि के समान / जो वस्तु भिन्न नहीं होती, उसमें लक्षण भेद भी नहीं होता, जैसे कि आकाश / अपि च, यदि जीव एक ही हो तो सुख दुःख, बन्ध, मोक्ष की भी व्यवस्था नहीं बन सकती, अतः अनेक जीव मानने चाहिए। हम देखते हैं कि संसार में एक जीव सुखी है और दूसरा दुःखी-एक बन्धन-बद्ध है तो दूसरा बन्धन-मुक्त (सिद्ध)। एक ही जीव का एक ही समय में सुखी और दुःखी होना सम्भव नहीं है। इसी प्रकार एक ही जीव का एक समय ही बद्ध और मुक्त होना भी सम्भव नहीं / कारण यह है कि उस में विरोध है। [1582] इन्द्रभति-जीव का लक्षण ज्ञान-दर्शन रूप उपयोग है / वह सब जीवों में है, तो फिर आप प्रति पिण्ड में लक्षण भेद कैसे मानते हैं ? भगवान् -सभी जीवों में उपयोग-रूप सामान्य लक्षण समान होने पर भी प्रत्येक शरीर में विशेष-विशेष उपयोग का अनुभव होता है। अर्थात् जीवों में उपयोग के अपकर्ष तथा उत्कर्ष का तारतम्य अनन्त प्रकार का होने के कारण जीव भी अनन्त मानने चाहिए। [1583] इन्द्रभति-आप ने कहा है कि जीव को एक मानने से सुख-दुःख और बन्ध-मोक्ष की व्यवस्था नहीं बन पाती / कृपा कर इस का स्पष्टीकरण करें। भगवान्–यदि जीव को सर्वत्र एक ही माना जाए तो उसे सर्वगत अथवा सर्वव्यापी मानना पड़ेगा, किन्तु जैसे सर्व-व्यापक होने के कारण आकाश में सुख-दुःख अथवा बन्धन-मोक्ष घटित नहीं होते, उसी प्रकार जीव के सर्वगत होने पर ये सम्भव नहीं होंगे। जिस में सुख-दुःख अथवा बन्ध-मोक्ष होते हैं वह देवदत्त के समान सर्वगत भी नहीं होता। पुनश्च, जो एक ही हो वह कर्ता, भोक्ता, मननशील अथवा संसारी भी नहीं हो सकता, जैसे कि आकाश / अतः जीव को एक न मान कर अनन्त ही मानना चाहिए। [1584] अपि च, यदि सभी जीव एक ही हों, उनमें कोई भेद न हो, तो संसार में कोई भी सुखी न रहे / कारण यह है कि चारों गति के जीवों में नारक और तिर्यंच ही अधिक हैं और वे सब नाना प्रकार की शारीरिक तथा मानसिक पीड़ाओं से ग्रस्त होने के कारण दुःखी ही हैं इस प्रकार जीव का अधिकतर अंश दुःखी होने के कारण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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