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________________ इन्द्रभूति ] जीव के अस्तित्व सम्बन्धी चर्चा "अाकाश एक है और विशुद्ध है, फिर भी तिमिर रोग वाला पुरुष उसे अनेक रेखाओं से चित्र विचित्र देखता है। इसी प्रकार ब्रह्म विकल्प शून्य है -- एक और विशुद्ध है। तदपि मानो वह अविद्या से कलुषित न हो गया हो, भिन्न अथवा अनेक रूपों से भासित होता है / ''1 "जिसका मूल उर्ध्व आकाश में है और शाखाए नीचे जमीन में हैं, ऐसे अश्वत्थ-वृक्ष को अव्यय शाश्वत कहा गया है। छन्द उसके पत्ते हैं। जो उसे जानता है, वही वेदज्ञ (ब्रह्मज्ञ) है।" उपनिषदों में भी कहा है-“जो कुछ था और जो कुछ होगा, वह सब पुरुष रूप ही है, वह पुरुष ही अमृत का स्वामी है जो अन्न से बढ़ता है / "3 "जो काँपता है, जो नहों काँपता, जो दूर है, जो निकट है, जो सब के अन्तर में है और जो सर्वत्र बाहर है-यह सब पुरुष ही है।" ___इस प्रकार सब कुछ ब्रह्म-रूप ही मानें तो क्या हानि है ? जोव अनेक हैं भगवान् हे गौतम ! नारक, देव, मनुष्य तथा तिर्यंच इन सब पिण्डों में आकाश के समान यदि एक ही प्रात्मा हो तो क्या हानि है ? यह तुम्हारा प्रश्न है, किन्तु आकाश के समान सब पिण्डों में एक आत्मा सम्भव नहीं / कारण यह है कि आकाश का सर्वत्र एक ही लिंग अथवा लक्षण अनुभव में आता है। अतः आकाश एक ही है, 1. यथा विशुद्धमाकाशं तिमिरोपप्लुतो जनः / संकीर्णमिव मात्राभिभिन्नाभिरमिन्यते / / तथेदममलं ब्रह्म निर्विकल्पमविद्यया / कलुषत्वमिवापन्न भेदरूपं प्रकाशते ॥बृहदारण्यक भाष्य वार्तिक 3.4.43-44 2. ऊर्ध्वमूलमधःशाखमश्वत्यं प्राहुरव्ययम् / छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित् // भगवद्गीता 15.1; योगशिखोपनिषद् 6, 14 3. 'पुरुष एवेदं ग्नि सर्व यद् भूतं यच्च भाव्यम्, उतामृतत्वस्येशानो यदन्नेनातिरोहति / ' मुद्रित विशेषावश्यक भाष्य की टीका में 'पुरुष एवेद ग्नि सर्व' ऐसा पाठ है, किन्तु वस्तु स्थिति और है / यह मन्त्र ऋग्वेद 10 90.2; सामवेद 619; यजुर्वेद 31.2; तथा अथर्व वेद 19.6.4 में है। पाठ 'पुरुष एवेदं सर्व' ऐसा ही है / केवल यजुर्वेदी पाद के बीच में पाने वाले अनुस्वार के स्थान में 'गु' उच्चारण करते हैं और ऋग्वेदी अथवा अथर्ववेदी वैसा उच्चारण न करके अनुस्वार को अनुस्वार रूप में ही उच्चारण करते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि यजुर्वेदी के इस उच्चारण भेद को लिपि में बद्ध करते हुए काल क्रम से 'ग्नि' विपर्यास हो गया है / 4. यदेजति यन्त्र जति यद् दूरे यदु अन्तिके / यदन्तरस्य सर्वस्य यत् सर्वस्यास्य बाह्यतः // ईशावास्योपनिषद् मन्त्र 5. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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