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________________ 7 इन्द्रभूति ] जीव के अस्तित्व सम्बन्धी चर्चा भी बहुत से लोग जीव का अस्तित्व स्वीकार करते हैं, अतः तुम्हें संशय है कि जीव की सत्ता है या नहीं ? [1553] संशय का निवारण हे गौतम ! जीव के विषय में तुम्हारा सन्देह उचित नहीं है / तुम्हारा यह कहना कि 'जीव प्रत्यक्ष नहीं प्रयुक्त है, क्योंकि जीव तुम्हें प्रत्यक्ष है ही।। संशय-विज्ञान रूप से जीव प्रत्यक्ष है इन्द्रभूति--यह कैसे ? भगवान्-'जीव है या नहीं' इस प्रकार का जो संशय रूप विज्ञान है वही जीव है, क्योंकि जीव विज्ञानरूप है। तुम्हें तुम्हारा सन्देह तो प्रत्यक्ष ही है, क्योंकि वह विज्ञानरूप है / जो विज्ञानरूप होता है वह स्वसंवेदन प्रत्यक्ष से स्वसंविदित होता हो है, अन्यथा विज्ञान का ज्ञान घटित नहीं हो सकता। इस प्रकार संशय रूप विज्ञान यदि तुम्हें प्रत्यक्ष हो तो उस रूप में जीव भी प्रत्यक्ष ही है। जो प्रत्यक्ष हो, उसकी सिद्धि में अन्य प्रमार अनावश्यक हैं। जैसे अपने शरीर में सुख-दुःखादि का जो अनुभव होता है, वह स्वसंविदित होने से प्रत्यक्ष सिद्ध है और सुख-दुःखादि की सिद्धि में प्रत्यक्षेतर प्रमाण अनावश्यक हैं; उसी प्रकार जीव भी स्वसंविदित होने के कारण अपनी सिद्धि के लिए अन्य प्रमाण की अपेक्षा नहीं रखता। इन्द्रभूति--जीव चाहे प्रत्यक्ष सिद्ध हो, किन्तु उसकी अन्य प्रमाणों से सिद्धि करना आवश्यक है। जैसे इस विश्व के पदार्थ यद्यपि प्रत्यक्ष सिद्ध हैं तथापि शून्यवादी को समझाने के लिए अनुमान आदि प्रमाणों से उनकी सिद्धि करनी पड़ती है, उसी प्रकार जीव के प्रत्यक्ष सिद्ध होने पर भी उसकी इतर प्रमाणों से सिद्धि आवश्यक है। भगवान्-शून्यवादी की चर्चा में भी वस्तुतः अनुमानादि प्रमाणों द्वारा विश्व के पदार्थों की सिद्धि नहीं करनी पड़ती, किंतु यदि शून्य वादियों ने विश्व के पदार्थों के अस्तित्व के सम्बन्ध में बाधक प्रमाण दिए हों तो उनका निराकरण ही किया जाता है। प्रस्तुत में आत्म ग्राहक प्रत्यक्ष का कोई बाधक प्रमाण ही नहीं है, अत: उसके निराकरण का प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता। अर्थात् आत्म-सिद्धि में प्रत्यक्षेतर प्रमाण अनावश्यक ही है। [1554] 1. शून्यवादी सब वस्तुओं की शून्यता सिद्ध करने के लिए इस प्रकार अनुमान करते हैं-'निरा लम्बनाः सर्वे प्रत्ययाः, प्रत्ययत्वात्, स्वप्नप्रत्ययवत्'-(प्रमाणवातिकालंकार-पृ०22)-अर्थात् सभी ज्ञानों का कोई विषय ही नहीं है, ज्ञान होने से, स्वप्नज्ञान के समान / यह विज्ञानवादियों का अनुमान है / वे विज्ञान भिन्न कोई बाह्य वस्तु नहीं मानते / इसी का उपयोग बाह्य वस्तु का बाधक बताने के लिए शून्यवादी भी करते हैं / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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