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________________ गणधरवाद [ गणधर कि 'रूप पुद्गल नहीं हैं / / ' अर्थात् बाह्य दृश्य वस्तु जीव नहीं है। इस प्रकार प्रारम्भ कर सभी प्रसिद्ध वस्तुओं को एक-एक करके लक्ष्य में रख कर भगवान बुद्ध ने सिद्ध किया कि जीव नहीं है। इसके विपरीत आत्मा का अस्तित्व बताने वाले पागम वचन भी उपलब्ध होते हैं, जैसा कि वेद में कहा है-'सशरीर आत्मा के प्रिय और अप्रिय--अर्थात् सुख और दुःख का नाश नहीं है, किन्तु शरीर-रहित जीव को प्रिय और अप्रिय का स्पर्श भी नहीं है। अर्थात् उसे सुख-दुःख दोनों ही नहीं हैं।' फिर यह भी कहा है कि 'स्वर्ग का इच्छुक अग्निहोत्र करे।' सांख्यों के आगम में कहा है कि 'पुरुष-आत्मा अकर्ता, निर्गुण, भोक्ता और चिद्रूप है। इस प्रकार आगमों के परस्पर विरुद्ध होने के कारण आगम प्रमाण से भी आत्मा की सिद्धि नहीं हो सकती। उपमान प्रमाण से जीव प्रसिद्ध है उपमान प्रमाण से भी आत्मा की सिद्धि शक्य नहीं है, कारण यह है कि यदि विश्व में आत्मा जैसा कोई अन्य पदार्थ हो तब उसकी उपमा अात्मा से दी जा सकती है और फिर आत्मा का ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। किन्तु प्रात्म-सदृश कोई पदार्थ है ही नहीं। अतः उपमान से भी आत्मा की सिद्धि नहीं हो सकती। कोई व्यक्ति यह भी कह सकता है कि काल, आकाश, दिक ये सब अमूर्त होने के कारण आत्मा के सदृश हैं, अतः उपमान प्रमाण से आत्मा की सिद्धि हो सकती है। इसका उत्तर यह है कि जैसे प्रात्मा प्रसिद्ध है वैसे ही कालादि भी प्रत्यक्ष न होने के कारण प्रसिद्ध हैं / अतः उपमान प्रमाण आत्मा की सिद्धि नहीं कर सकता। प्रर्थापत्ति से भी जीव प्रसिद्ध है अर्थापत्ति प्रमाण से भी प्रात्मा सिद्ध नहीं हो सकती, कारण यह है कि संसार में ऐसा एक भी पदार्थ नहीं जिसका अस्तित्व उसी दशा में सिद्ध हो सकता है जबकि आत्मा को माना जाए। __ इस प्रकार तुम समझते हो कि जीव सर्व प्रमाणातीत है, अर्थात् किसी भी प्रमाण से उसकी सिद्धि नहीं हो सकती, अतः उसका प्रभाव मानना चाहिए। फिर 1. 'न रूपं भिक्षवः ! पुद्गलः' इस विषय की बौद्ध त्रिपिटक में विस्तृत चर्चा है / संयुक्त निकाय 12.70.32-37; दीघनिकाय महानिदान सुत्त 15; मज्झिम निकाय छक्क-सुत्त 148. मैंने इस विषय की चर्चा न्यायावतारवातिक वृत्ति की प्रस्तावना में की है-देखें पृ० 6, 2. न ह वै सशरीरस्य प्रियाप्रिययोरपहतिरस्ति, अशरीरं वा वसन्तं प्रियाप्रिये न स्पृशतः / ' छान्दोग्य उपनिषद 8.12.1. 3. 'अग्निहोत्रं जुहुयात् स्वर्गकामः' मैत्रायणी उपनिषद् 3.6.36. 4. 'अस्ति पुरुषोऽकर्ता निर्गुणो भोक्ता चिद्रूपः / इसके साथ तुलना करें:--- 'अमूर्तश्चे नो भोगी नित्यः सर्वगतोऽक्रियः / अकर्ता निर्गुणः सूक्ष्म प्रात्मा कापिलदर्शने // ' यह पद्य स्याद्वादमञ्जरी पृष्ठ 96 पर उद्धृत है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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