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________________ इन्द्रभूति ] जीव के अस्तित्व सम्बन्धी चर्चा 'घट' शब्द का श्रवण करते हैं तब यह अनुमान कर लेते हैं कि वक्ता 'घट' शब्द से अमुक विशिष्ट आकार वाले अर्थ का ही प्रतिपादन करता है। इस तरह दृष्टार्थ विषयक आगम अनुमान ही है / प्रस्तुत में 'जीव' यह शब्द हमने कभी भी शरीर से भिन्न अर्थ मेंप्रयुक्त हुआ सुना ही नहीं है / तो फिर जीव शब्द का श्रवण करने पर हम दृष्टार्थ विषयक प्रागम से उसकी सिद्धि कैसे कर सकेगे ? अर्थात् दृष्टार्थ विषयक आगम से भी शरीर से भिन्न जीव की सिद्धि नहीं होती। स्वर्ग-नरक आदि पदार्थ अदृष्ट अथवा परोक्ष हैं। इस प्रकार के पदार्थों के प्रतिपादक व वन को अदृष्टार्थ विषयक आगम कहते हैं। यह आगम भी अनुमान रूप है। इस बात को हम इस प्रकार सिद्ध कर सकते हैं-उक्त अदृष्टार्थ के प्रतिपादक वचन का प्रामाण्य निम्न-प्रकारेण सिद्ध होता है--रवर्ग-नरकादि का प्रतिपादक वचनाप्रमाण है, क्योंकि वह चन्द्र ग्रहण आदि वचन के समान अविसंवादी व वन वाले प्राप्त-पुरुष का वचन है। इस प्रकार यह अदष्टार्थ विषयक प्रागम भी अनुमान रूप ही है। प्रस्तुत में ऐसा कोई भी प्राप्त-पुरुष सिद्ध नहीं है जिसे प्रात्मा प्रत्यक्ष हो और जिसके आधार पर इस सम्बन्ध में उस का वचन प्रमाण माना जाए तथा इस प्रकार जीव के अप्रत्यक्ष होने पर भी उसका अस्तित्व मान लिया जाए। इस प्रकार आगम प्रमाण से भी जीवसिद्धि सम्भव नहीं। [1552] जीव के विषय में प्रागमों में परस्पर विरोध पुनश्च तथाकथित आगम भी आत्मा के विषय में परस्पर विरुद्ध मत का प्रतिपादन करते हैं, अतः आत्मा के अस्तित्व में सन्देह का अवकाश रहता ही है। जैसे कि चार्वाकों के शास्त्र में कहा है कि 'जो कुछ इन्द्रियों द्वारा ग्राह्य है, उतना ही लोक है।' अर्थात् आत्मा इन्द्रियों द्वारा ग्राह्य न होने के कारण प्रभाव स्वरूप ही है। इसके समर्थन में किसी ऋषि की उक्ति भी है कि ‘इन भूतों से विज्ञानघन समुत्थित होता है और भूतों के नष्ट होने पर वह भी नष्ट हो जाता है / परलोक जैसी कोई चीज नहीं है / ' भगवान् बुद्ध ने भी आत्मा का अभाव बताते हुए कहा है 1. 'एतावानेव लोकोऽयं यावानिन्द्रियगोचरः / भद्रे वृकपदं पश्य यद् वदन्ति विपश्चितः / / उत्तरार्द्ध का भावार्थ-हे भद्रे ! वृक पद को भी देखो तथा विद्वान उसके आधार पर जिन परस्पर विरुद्ध पदार्थों का अनुमान करते हैं, उन्हें भी देखो। इससे अनुमान को प्रमाण मानना चाहिए। यह पद्य षड्दर्शन समुच्चय में 81वां तथा लोकतत्वनिर्णय में 290वां है। 2. वृत्ति में लिखा है 'भट्टोऽप्याह'। किन्तु यह वाक्य कुमारिल का नहीं है, अतः उक्त कथन युक्त नहीं। यह वाक्य उपनिषदों का है। 3. 'विज्ञानघन एवैतेभ्यो भूतेभ्यः समुत्थाय तान्येवानु विनश्यति, न च प्रेत्य संज्ञा ऽस्ति / ' बृहदारण्यक उप० 2. 4. 12. यह वाक्य ऋषि गज्ञवल्क्य का है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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