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________________ गणधरवोद [ गणधर भी नहीं जाना जा सकता। हमारा अनुभव है कि जब हम परोक्ष अग्नि का अनुमान करते हैं तब सब से पहले धूमरूप लिंग अथवा हेतु का प्रत्यक्ष होता ही है। यही नहीं अपितु पहले से ही प्रत्यक्ष प्रमाण द्वारा निश्चित किए गए लिंग-हेतु तथा लिंगीसाध्य के अविनाभाव संबन्ध का--अर्थात् प्रत्यक्ष से निश्चित धूम तथा अग्नि के अविनाभाव संबन्ध का-स्मरण होता है। तभी धूम के प्रत्यक्ष से अग्नि का अनुमान किया जा सकता है, अन्यथा नहीं । [१५५०] प्रस्तूत में जीव के विषय में जीव के किसी भी लिंग का जीव के साथ सबन्ध प्रत्यक्ष प्रमाण द्वारा पूर्व गृहीत है ही नही; जिससे उस लिंग का पुनः प्रत्यक्ष होने पर उस सबन्ध का स्मरण हो और जीव का अनुमान किया जा सके। कोई व्यक्ति यह कह सकता है कि सूर्य की गति का कभी भी प्रत्यक्ष नहीं हुआ, फिर भी उस की गति का अनुमान हो सकता है; जैसे कि सूर्य गतिशील है क्योंकि वह कालान्तर में दूसरे देश में पहुँच जाता है, देवदत्त के समान । जिस प्रकार यदि देवदत्त प्रातःकाल यहां हो किन्तु संध्या में अन्यत्र हो, तो यह बात गमन के अभाव में शक्य नही; उसी प्रकार सूर्य प्रातःकाल में पूर्व दिशा में होता है और सायंकाल में पश्चिम दिशा में । यह बात भी सूर्य की गतिशीलता के बिना संभव नहीं। इस प्रकार के सामान्यतो-दृष्ट अनुमान से सर्वथा अप्रत्यक्षरूप सूर्य की गति की सिद्धि हो सकती है इसी तरह सामान्यतो-दृष्ट अनुमान से सर्वथा अप्रत्यक्ष रूप जीव का अस्तित्व भी सिद्ध हो सकता है। इस का उत्तर यह है कि देवदत्त का जो दृष्टान्त ऊपर दिया गया है, उसमें सामान्यतः देवदत्त का देशान्तर में होना गतिपूर्वक ही है । यह बात प्रत्यक्ष सिद्ध है, इस लिए इस दृष्टान्त से सूर्य की गति अप्रत्यक्ष होने पर भी देशान्तर में सूर्य को देखकर सूर्य की गति का अनुमान हो सकता है। किन्तु प्रस्तुत में जीव के अस्तित्व के साथ अविनाभावी किसी भी हेतु का प्रत्यक्ष नहीं होता, जिस से जीव के उस हेतु के पुनर्दर्शन से अनुमान हो सके। अतः उक्त सामान्यतो-दृष्ट अनुमान से भी जीव का अस्तित्व सिद्ध नहीं हो सकता। [१५५१] जीव प्रागम प्रमाण से भी सिद्ध नहीं आगम-प्रमाण से भी जीव की सिद्धि नहीं हो सकती। वस्तुतः आगम प्रमाण अनुमान प्रमाण से पृथक् नहीं है । वह अनुमान रूप ही है । क्योंकि आगम के दो भेद हैं:--एक दृष्टार्थ विषयक अर्थात् प्रत्यक्ष पदार्थ का प्रतिपादक और दूसरा अदृष्टार्थ विषयक-अर्थात् परोक्ष पदार्थ का प्रतिपादक । उनमें दृष्टार्थ विषयक आगम तो स्पष्टरूपेण अनुमान है,क्योंकि मिट्टी के अमुक विशिष्ट आकार वाले प्रत्यक्ष पदार्थ को लक्ष्य में रखकर प्रयुक्त होने वाला 'घट' शब्द जब हम बार बार सुनतेहैं तब हम निश्चय कर लेते हैं कि इस आकार वाले पदार्थ को 'घट' शब्द से प्रतिपादित किया गया है । इस प्रकार का निश्चय हो जाने के बाद जब कभी हम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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