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________________ १५३ m U० (८) कर्म का स्वरूप १२८ (९) कर्म के प्रकार १३७ (१०) कर्मबन्ध के प्रबल कारण १३८ (११) कर्मफल का क्षेत्र १४० (१२) कर्मबन्ध और कर्मफल की प्रक्रिया १४० (१३) कर्म का कार्य अथवा फल १४२ (१४) कर्म की विविध अवस्थाएँ १४७ (१५) कर्मफल का संविभाग १४६ (इ) परलोक विचार १५०-१६० (१) वैदिक देव और देवियाँ १५१ (२) वैदिक स्वर्ग-नरक (३) उपनिषदों के देवलोक १५४ (४) देवयान, पितृयान १५४ (५) पौराणिक देवलोक (६) वैदिक असुरादि १५६ (७) उपनिषदों में नरक का वर्णन १५६ (८) पौराणिक नरक १५७ १५७ (९) बौद्ध और परलोक (१०) जैन-सम्मत परलोक १५६ गणधरवाद--पृ० १-१७६ १. प्रथम गण घर इन्द्रभूति-जीव के अस्तित्व सम्बन्धी चर्चा ३-२८ इन्द्रभूति के संशय का कथन ३-७ ज्ञान देह-गुण नहीं जीव प्रत्यक्ष नहीं सर्वज्ञ को जीव प्रत्यक्ष है जीव अनुमान से सिद्ध नहीं होता अन्य देह में प्रात्म-सिद्धि जीव आगम-प्रमाण से भी सिद्ध नहीं ४ प्रात्म-सिद्धि के लिए अनुमान जीव के विषय में प्रागमों में परस्पर श्रात्मा कथंचि विरोध ५ संशय का विषय होने से जीव है १५ उपमान प्रमाण से भी जीव प्रसिद्ध है ६ अजीव के प्रतिपक्षी रूप में जीव की। सिद्धि १६ अर्थापत्ति से भी जीव प्रसिद्ध है . ६ निषेध्य होने से जीव-सिद्धि संशय का निवारण ७-२८ निषेध का अर्थ संशय विज्ञान रूप से जीव प्रत्यक्ष है ७ सर्वथा असत् का निषेध नहीं अहं-प्रत्यय से जीव का प्रत्यक्ष शरीर जीव का आश्रय है अहं-प्रत्यय देह विषयक नहीं जीव-पद सार्थक है संशय-कर्ता जीव ही है जीव-पद का अर्थ देह नहीं प्रात्म-बाधक अनुमान के दोष सर्वज्ञ-वचन द्वारा जीव-सिद्धि गुणों के प्रत्यक्ष से आत्मा का प्रत्यक्ष १० सर्वज्ञ झूठ नहीं बोलता शब्द पौदा लिक है भगवान् सर्वज्ञ क्यों ? गुण-गुणी का भेदभाव जीव एक ही है १० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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