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गणधरवाद
नहीं करनी चाहिए । वे प्रत्यक्ष दुःख, उसके कारण और दुःख-निवारक मार्ग का उपदेश करते। परन्तु जैसे-जैसे उनके उपदेश एक धर्म और दर्शन के रूप में परिणत हुए, वैसे-वैसे प्राचार्यों को स्वर्ग, नरक, प्रेत आदि समस्त परोक्ष-पदार्थों का भी विचार करना पड़ा और उन्हें बौद्ध-धर्म में स्थान देना पड़ा। बौद्ध-पण्डितों ने कथानों की रचना में जो कौशल दिखाया है, वह अनुपम है। उनका लक्ष्य सदाचार और नीति की शिक्षा प्रदान करना था। उन्होंने अनुभव किया कि, स्वर्ग के सुखों और नरक के दुःखों के कलात्मक वर्णन के समान अन्य कोई ऐसा साधन नहीं है जो सदाचार में निष्ठा उत्पन्न कर सके। अतः उन्होंने इस ध्येय को सन्मुख रखते हुए कथानों की रचना की, उन्हें इस विषय में अत्यन्त महत्वपूर्ण सफलता भी प्राप्त हुई। इस आधार पर धीरे-धीरे बौद्ध-दर्शन में भी स्वर्ग, नरक, प्रेत सम्बन्धी विचार व्यवस्थित होने लगे। निदान अभिधम्मकाल में हीनयान सम्प्रदाय में उनका रूप स्थिर हो गया, किन्तु महायान सम्प्रदाय में उनकी व्यवस्था कुछ भिन्न रूप से हुई ।
बौद्ध अभिधम्म में सत्त्वों का विभाजन इन तीन भूमियों में किया गया है-कामावचर, रूपावचर, अरूपावचर । उनमें नारक, तिर्यच, प्रेत, असुर ये चार कामावचर भूमियाँ अपायभूमि हैं. अर्थात् उनमें दुःख की प्रधानता है। मनुष्यों तथा चातुम्महाराजिक, तावतिस, याम, तुसित, निम्मानरति, परिनिम्नितवसवत्ति नाम के देव-निकायों का समावेश काम-सुगति नाम की कामावचर भूमि में है। उनमें कामभोग की प्राप्ति होती है, अतः चित्त चंचल रहता है ।
रूपावचर भूमि में उत्तरोत्तर अधिक सुखवाले सोलह देव निकायों का समावेश है जिसका विवरण इस प्रकार है :प्रथम ध्यान-भूमि में-1. ब्रह्मपारिसज्ज, 2. ब्रह्मपुरोहित, 3. महाब्रह्म द्वितीय ध्यान-भूमि में-4. परित्ताभ, 5. अप्पमाणाभ, 6. आभस्सर तृतीय ध्यान-भूमि में--7. परित्तसुभा, 8. अप्पमाणसुभा 9. सुभकिण्हा चतुर्थ ध्यान-भूमि में-10. वेहप्फला 11. असञसत्ता; 12-16. पाँच प्रकार के सुद्धावास
__सुद्धावास के ये पाँच भेद हैं-12 अविहा, 13 अतप्पा, 14. सुदस्सा, 15. सुदस्सी, 16. अकनिट्ठा ।
ग्ररूपावचर भूमि में उत्तरोत्तर अधिक सुख वाली चार भूमि हैं1. आकासानंचायतन भूमि 2. विज्ञाणञ्चायतन भूमि 3. अकिंचंञायतन भूमि 4. नेवसञानासज्ञायतन भूमि
अभिधम्मत्थ-संग्रह में नरकों की संख्या नहीं बताई गई है, किन्तु मज्झिमनिकाय में उन विविध कष्टों का वर्णन है जो नारकों को भोगने पड़ते हैं। (बालपण्डित-सुत्तन्त-129 देखें)
1. दीघनिकाय के तेविज्जसुत्त में ब्रह्मसालोकता विषयक भगवान् बुद्ध का कथन देखें। 2. अभिधम्मत्थ-संग्रह परि० 5.
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