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________________ प्रस्तावना बूढ़ी गायों का दान कर रहा था। उसने सोचा कि, मेरे पिता इनके बदले मुझे ही दान में क्यों नहीं दे देते ? उपनिषदों में इस विषय में कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं है कि, ऐसे अन्धकारमय लोक जाने वाले जीव सदा के लिए वहीं रहते हैं अथवा वहाँ से उनका छुटकारा भी हो जाता है । ( 8 ) पौराणिक-नरक नरक के विषय में पुराणकालीन वैदिक परम्परा में कुछ विशेष विवरण मिलते हैं । बौद्ध और जैन मत के साथ उनकी तुलना करने पर ज्ञात होता है कि यह विचारणा तीनों परम्पराओं में समान ही थी । योगदर्शन व्यास भाष्य में सात नरकों के ये नाम बताए गए हैं- महाकाल, अम्बरीष, रौरव, महारौरव, कालसूत्र, अन्धतामिस्र, अवीचि । इन नरकों में जीवों को अपने किए हुए कर्मों के कट्फल मिलते हैं और वहाँ जीवों की आयु भी लम्बी होती है । अर्थात् दीर्घकाल तक कर्म का फल भोगने के बाद ही वहाँ से जीव का छुटकारा होता है; ऐसी मान्यता सिद्ध होती है । ये नरक हमारी अपनी भूमि और पाताल लोक के नीचे अवस्थित हैं । 157 भाष्य की टीका में नरकों के अतिरिक्त कुम्भीपाकादि उपनरकों की कल्पना को भी स्थान प्राप्त हुआ है । वाचस्पति ने इनकी संख्या अनेक बताई है किन्तु भाष्यवार्तिककार ने इसे अनन्त कहा है | भागवत में नरकों की संख्या सात के स्थान पर 28 बताई है और उनमें प्रथम 21 के नाम ये हैं - तामिस्र, अन्धतामिस्र, रौरव, महारौरव, कुम्भीपाक, कालसूत्र, असिपत्रवन, सूकरसुख, अन्धकूप, कृमि भोजन, संदंश, तप्तसूमि, वज्रकण्टकशाल्मली, वैतरणी, पयोद, प्राणरोध, विशसन, लालाभक्ष, सारमेयादन, यवीचि तथा ग्रयःपान' । इसके प्रतिरिक्त कुछ लोगों के मतानुसार अन्य सात नरक भी हैं--क्षार-कर्दम, रक्षोगण भोजन, शूलप्रोत, दन्दशूक, अवटनिरोधन, योवर्तन और सूचीमुख । इनमें अधिकतर नाम ऐसे हैं जिनसे यह ज्ञात हो जाता है कि उन नरकों में जीवों को किस प्रकार के कष्ट हैं । (9) बौद्ध और परलोक हम यह कह सकते हैं कि, भगवान् बुद्ध ने अपने धर्म को इसी लोक में फल देने वाला माना था और उनके उपलब्ध प्राचीन उपदेश में स्वर्ग, नरक अथवा प्रेतयोनि सम्बन्धी विचारों को स्थान ही नहीं था । यदि कभी कोई जिज्ञासु ब्रह्मलोक जैसे परोक्ष विषय के सम्बन्ध में प्रश्न करता, तो भगवान् बुद्ध सामान्यतः उसे समझाते कि, परोक्ष-पदार्थों के विषय में चिन्ता 1. 2. 3. 4. कठ० 1.1.3; बृहदा० 4.4.10-11; ईश 3-9 योगदर्शन व्यास-भाष्य, विभूतिपाद 26 भाष्यवार्तिककार ने कहा है कि, पाताल अवीचि नरक के नीचे हैं, किन्तु यह भ्रम प्रतीत होता है । श्रीमद्भागवत् (छायानुवाद) पृ० 164, पंचमस्कंध 26.5-36, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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