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________________ प्रस्तावना 159 जातक (530) में ये आठ नरक बताए गए हैं--संजीव, कालसुत्त, संघात, जालरोव, धूमरोरुव, तपन, प्रतापन, अवीचि । महावस्तु (1.4) में उक्त प्रत्येक नरक के 16 उस्सद (उपनरक) स्वीकार किए गए हैं। इस तरह सब मिलकर 128 नरक हो जाते हैं। किन्सु पचगति-दीपनी नामक ग्रन्थ में प्रत्येक नरक के चार उस्सद बताए हैं-माल्हकूप, कुक्कुल, प्रसिपत्तवन, नदी (वेतरणी)। बौद्धों ने देवलोक के अतिरिक्त प्रेतयोनि भी स्वीकार की है। इन प्रेतों की रोचक कथाएँ पेतवत्थु नाम के ग्रन्थ में दी गई हैं। सामान्यतः प्रेत विशेष प्रकार के दुष्कर्मों को भोगने के लिए उस योनि में उत्पन्न होते हैं । इन दोषों में इस प्रकार के दोष हैं--दान देने में ढील करना, योग्य रीति से श्रद्धा-पूर्वक न देना । दीघनिकाय के प्राटानाटिय सुत्त में निम्नलिखित विशेषणों द्वारा प्रेतों का वर्णन किया गया है--चुगलखोर, खूनी, लुब्ध, चोर, दगाबाज आदि; अर्थात् ऐसे लोग प्रेतयोनि में जन्म ग्रहण करते हैं। पेतवत्थु ग्रंथ से भी इस बात का समर्थन होता है। पेतवत्थु के प्रारम्भ में ही यह बात कही गई है कि, दान करने से दाता अपने इस लोक का सुधार करने के साथ-साथ प्रेतयोनि को प्राप्त अपने सम्बन्धियों के भव का उद्धार करता है । प्रेत पूर्वजन्म के घर की दीवार के पीछे आकर खड़े रहते हैं। चौक में अथवा मार्ग के किनारे पाकर भी खड़े हो जाते हैं। जहाँ महान् भोज की व्यवस्था हो, वहाँ वे विशेष रूप से पहुँचते हैं । यदि जो लोग उनका स्मरण कर उन्हें कुछ नहीं देते, तो वे दुःखी होते हैं। जो उन्हें याद कर उन्हें देते हैं, वे उनका आशीर्वाद प्राप्त करते हैं। क्योंकि प्रेत लोक में व्यापार अथवा कृषि की व्यवस्था नहीं है जिससे उन्हें भोजन मिल सके सके। उनके निमित्त इस लोक में जो कुछ दिया जाता है, उसीके आधार पर उनका जीवन-निर्वाह होता है । इस प्रकार के विवरण पेतवत्थु में उपलब्ध होते हैं। ___ लोकान्तरिक नरक में भी प्रेतों का निवास है। वहाँ के प्रेत छह कोस ऊँचे हैं । मनुष्यलोक में निझामतण्ह जाति के प्रेत रहते हैं। इनके शरीर में सदा जलन होती रहती है। वे सदा भ्रमणशील होते हैं। इनके अतिरिक्त पालि गंथों में खुप्पिपास, कालंकजक, उतूपजीवी नाम की प्रेत-जातियों का भी उल्लेख है । (10) जैन-सम्मत परलोक जनों ने समस्त संसारी जीवों का समावेश चार गतियों में किया है--मनुष्य, तिर्यञ्च, नारक तथा देव । मरने के बाद मनुष्य अपने कर्मानुसार इन चार गतियों में से किसी एक गति में भ्रमण करता है। जैन-सम्मत देव तथा नरकलोक के विषय में ज्ञातव्य बातें ये हैं-- 1. E R E-Cosmogomy & Cosmology-शब्द देखें। महायान के वर्णन के लिए अभिधर्मकोष चतुर्थ स्थान में देखें । 2. पेतवत्यु 1.5. 3. Buddhist Conception of spirits P. 24. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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