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________________ प्रस्तावना यहाँ वह पुण्य और पाप व्यक्ति क्रमशः अग्निलोक, वायुलोक, वरुणलोक, इन्द्रलोक और प्रजापति लोक से होकर ब्रह्मलोक में जाता है । वहाँ वह मन के द्वारा ग्रार नामक सरोवर को पार करता है और येष्टि (उपासना में विघ्न डालने वाले) देवों के पास पहुँचता है । वे देव उसे देखते ही भाग जाते हैं। तत्पश्चात वह मन के द्वारा ही विरजा नदी पार करता है । को छोड़ देता है । उसके बाद वह इल्य नामक वृक्ष के निकट जाता है और वहाँ उसे ब्रह्मा की गन्ध आती है । फिर वह सालज्यनगर के पास पहुँचता है । वहाँ उसमें ब्रह्मतेज प्रविष्ट होता है । तदनन्तर वह इन्द्र और बृहस्पति नामक चौकीदारों के पास आता है। वे भी उसे देखकर दौड़ जाते हैं । वहाँ से चलकर वह विभु नामक सभा स्थान में आता है । यहाँ उसकी कीत्ति इतनी बढ़ जाती है जितनी कि ब्रह्मा की । फिर वह विचक्षणा नाम के ज्ञानरूप सिंहासन के समीप आता है और अपनी बुद्धि द्वारा समस्त विश्व को देखता है । अन्त में वह अमितौजा नामक ब्रह्म के पलंग के निकट श्राता है । जब उस पलंग पर प्रारूढ होता है, तब वहाँ आसीन ब्रह्मा उससे पूछता है, "तुम कौन हो ?" वह उत्तर देता है, "जो आप हैं, वही मैं हूँ ।" ब्रह्मा पुनः पूछता है, "मैं कौन हूँ ?" वह व्यक्ति उत्तर देता है, "आप सत्य स्वरूप हैं" । इस प्रकार अन्य अनेक प्रश्न पूछ कर जब ब्रह्मा की पूर्णतः तुष्टि हो जाती है, तब वह उसे अपने समान समझता है | इसी उपनिषद् में पितृयान के वर्णन का सार यह है - चन्द्रलोक ही पितृलोक है । सभी मरने वाले पहले यहाँ पहुँचते हैं । किन्तु जिनकी इच्छा पितृलोक में निवास करने की न हो. उन्हें चन्द्र ऊपर के लोक में भेज देता है और जिनकी अभिलाषा चन्द्रलोक की हो, उन्हें चन्द्र वर्षा के रूप में इस पृथ्वी पर जन्म लेने के लिए भेज देता है । ऐसे जीव अपने कर्मों और ज्ञान के अनुसार कीट, पतंग, पक्षी, सिंह, व्याघ्र, मछली, रीछ, मनुष्य अथवा अन्य किसी रूप में भिन्न-भिन्न स्थानों में जन्म लेते हैं । इस प्रकार पितृयान मार्ग में जाने वालों पड़ता है । को पुनः इस लोक में ग्राना 155 सारांश यह है कि, ब्रह्मी-भाव को प्राप्त कर लेने वाले जीव जिस मार्ग से ब्रह्मलोक में जाते हैं, उसे देवयान कहते हैं, किन्तु अपने कर्मों के अनुसार जिनकी मृत्यु पुनः होने वाली है वे चन्द्रलोक में जाकर लौट आते हैं। उनके मार्ग का नाम पितृयान है और उनकी योनि प्रेत योनि कहलाती है । इस उपर्युक्त वर्णन से हमें यह ज्ञात हो जाता है कि, प्रस्तुत ग्रन्थ में परलोक के सादृश्यवैसादृश्य के सम्बन्ध में जो चर्चा है. उसके विषय में उपनिषदों का क्या मत है । यह भी पता लगता है कि, जीव कर्मानुसार विसदृश अवस्था को प्राप्त होते हैं । इस ग्रन्थ में भी इस मत का समर्थन है । 1. कौषीतकी प्रथम अध्याय देखें । 2. कौषीतकी 1.2. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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