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________________ 154 गणधरवाद दूर हो जाती हैं और वह वहाँ देवों के साथ मधु, सोम, अथवा घृत का पान करता है । वहाँ रहते हुए उसे अपने पुत्रादि द्वारा श्राद्ध-तर्पण में अर्पित पदार्थ भी मिल जाते हैं। यदि उसने स्वयं इष्टापूर्त (बावड़ी, कुत्रा, तालाब आदि जलस्थान) किया हो. तो उसका फल भी उसे स्वर्ग में मिल जाता है। वैदिक आर्य प्राशावादी, उत्साही और प्रानन्द-प्रिय लोग थे। उन्होंने जिस प्रकार के स्वर्ग की कल्पना की है, वह उनकी विचार-धारा के अनुकूल ही है । यही कारण है कि, उन्होंने प्राचीन ऋग्वेद में पापी आदमियों के लिए नरक से स्थान की कल्पना नहीं की। दास तथा दस्यु से लोगों को आर्य लोग अपना शत्रु समझते थे, उनके लिए भी उन्होंने नरक की कल्पना नहीं की; किन्तु देवों से यह प्रार्थना की है कि, वे उनका सर्वथा नाश कर दें। मृत्यु के बाद उनकी क्या दशा होती है, इस विषय में उन्होंने कुछ भी विचार नहीं किया। ऐमी कल्पना है कि जो, पुण्यशाली व्यक्ति मर कर स्वर्ग में जाते हैं, वे सदा के लिए वहीं रहते हैं। वैदिक काल में यह कल्पना नहीं की गई थी कि, पुण्य का क्षय होने पर वे पुनः मर्त्यलोक में वापिस आ जाते हैं; हाँ, ब्राह्मण-काल में इस मान्यता का अस्तित्व था। (3) उपनिषदों के देवलोक बहदारण्यक में प्रानन्द की तरतमता का वर्णन है। उसके आधार पर मनुष्यलोक से ऊपर के लोक के विषय में विचार किया जा सकता है। उसमें कहा गया है कि स्वस्थ होना, धनवान् होन', दूसरों की अपेक्षा उच्च पद प्राप्त करना, अधिक से अधिक सांसारिक वैभव होना; ये ऐसे प्रानन्द हैं जो इस संसार में मनुष्य के लिए महान् से महान् हैं। पितृलोक में जाने वाले पितरों को इस संसार के आनन्द की अपेक्षा सौ गुना अधिक प्रानन्द मिलता है। गन्धर्वलोक में उससे भी सौ-गुना अधिक प्रानन्द है। पुण्य-कर्म द्वारा देवता बने हुए लोगों का प्रानन्द गन्धर्वलोक से सौ-गुना ज्यादा है । सृष्टि को आदि में जन्म लेने वाले देवों का प्रानन्द इन दे ों की अपेक्षा सौ-गुना अधिक है। प्रजापति-लोर में इस प्रानन्द से भी सौ-गुना और ब्रह्मलोक में उससे भी सौ-गुना अधिक प्रानन्द होता • • ब्रह्मलोक का आनन्द सर्वाधिक है । बृहदा० 4.3.33. (4) देवयान, पितयान ऋग्वेद में देवयान और पितृयान शब्दों का प्रयोग है परन्तु इन मार्गों का वर्णन वहाँ उपलब्ध नहीं होता । उपनिषदों में दोनों मार्गों का विशद विवरण है, किन्तु हम उसके विस्तार में न जाकर विद्वानों द्वारा मान्य एवं उचित वर्णन का यहाँ उल्लेख करेंगे । औषीतकी उपनिषद् में देवयान का वर्णन इस प्रकार है;----मन्यु के बाद देवयान मार्ग से जाने वाला 1. ऋग्वेद 10.154.। 2. Creative Period p. 26. 3. Creative Period p. 27,76 4. परं मृत्यो अनु परेहि पन्था यस्ते स्व इतरो देवयानात-ऋग्वेद 10.19.1 तथा पन्थामनु प्रविद्वान् पितृयाणं--10.2.27 5. बहदा० 5.10.1; छान्दोग्य 4-15. 5-6; 5.10.1-6; कौषीतकी 1.2-4. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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