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________________ 152 आरोप करके भी कुछ देवों की कल्पना की गई है, जैसे कि मन्यु, श्रद्धा आदि । इस लोक के कुछ मनुष्य, पशु और जड़ पदार्थ भी देव माने गए हैं, जैसे कि मनुष्यों में प्राचीन ऋषियों में से मनु, अथर्वा दध्यंच, अत्रि, कण्व, वत्स, और काव्य उषणा । पशुओं में दधिक्रा सदृश घोड़े में देवी भाव माना गया है। जड़ पदार्थों में पर्वत, नदी जैसे पदार्थों को देव कहा गया है । देवों की पत्नियों की भी कल्पना की गई है, जैसे कि इन्द्राणी आदि । कुछ स्वतन्त्र देवियाँ भी मानी गई हैं, जैसे कि उषा, पृथ्वी, सरस्वती, रात्रि, वाक्, अदिति प्रादि । वेदों में इस विषय में एक मत नहीं है कि भिन्न-भिन्न देव अनादिकाल से हैं या वे किसी समय उत्पन्न हुए हैं। प्राचीन कल्पना यह थी कि, वे द्यु और पृथ्वी की सन्तान हैं। उषा को देवताओं की माता' कहा गया है, किन्तु वह बाद में स्वयं द्यु की पुत्री मानी गई । प्रदिति और दक्ष को भी देवताओं के माता-पिता माना गया है । अन्यत्र सोम को अग्नि, सूर्य, इन्द्र, विष्णु, द्यु और पृथ्वी का जनक कहा गया है । कई देवताओं के परस्पर पिता-पुत्र के सम्बन्ध का भी वर्णन है । इस प्रका ऋग्वेद में देवताओं की उत्पत्ति के सम्बन्ध में एक निश्चित मत उपलब्ध नहीं होता । सामान्यतः सभी देवों के विषय में ये उल्लेख मिलते हैं कि, वे कभी उत्पन्न हुए । अतः हम कह सकते हैं कि वे न तो अनादि हैं और न स्वतः सिद्ध । ऋग्वेद में बार-बार उल्लेख किया गया है कि, देवता अमर हैं, परन्तु सभी देवता अमर हैं अथवा श्रमरता उनका स्वाभाविक धर्म है, यह बात स्वीकार नहीं की गई। वहाँ यह कथन उपलब्ध होता है कि, सोम का पान कर देवता ग्रमर बनते हैं । यह भी कहा गया है कि, अग्नि और सविता देवताओं को अमरत्व अर्पित करते हैं । गणधरवाद एक ओर देवताओं की उत्पत्ति में पूर्वापर-भाव का वर्णन किया गया है और दूसरी ओर यह लिखा है कि, देवों में कोई बालक अथवा कुमार नहीं, सभी समान हैं । यदि शक्ति की दृष्टि से विचार किया जाए, तो देवों में दृष्टिगोचर होने वाले वैषम्य की कोई सीमा नहीं है, किन्तु एक बात की सभी में समानता है, और वह है उनकी परोपकार-वृत्ति । मगर यह वृत्ति श्रार्यों के लिए ही स्वीकार की गई है, दास या दस्युनों के विषय में नहीं । देवता यज्ञ करने वाले को सभी प्रकार की भौतिक सम्पत्ति देने में समर्थ हैं, वे समस्त विश्व के नियामक हैं और अच्छे व बुरे कामों पर दृष्टि रखने वाले हैं। किसी भी मनुष्य में यह शक्ति नहीं है कि, वह देवतानों की प्राज्ञा का उल्लंघन कर सके । जब उनके नाम से यज्ञ किया जाता है, तब वे द्युलोक से रथ पर चढ़कर चलते हैं और यज्ञ भूमि में आकर बैठते हैं । अधिकांश देवों का निवास स्थान द्युलोक है और वे वहाँ सामान्यत: मिल-जुलकर रहते हैं । वे सोमरस पीते हैं और मनुष्यों जैसा प्रहार करते हैं । जो यज्ञ द्वारा उन्हें प्रसन्न करते हैं, वे उनकी सहानु देवानां माता -- ऋग्वेद 1.113.19 ऋग्वेद 1.30.22 देवानां पितरं -- ऋग्वेद 2.26.3 ऋग्वेद 10.109.4; 7.21.7. 1. 2. 3. 4. 5. ऋग्वेद 8.30.1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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