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प्रस्तावना
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बनता है । इस कल्पना के बल पर प्राचीन काल से लेकर आज तक के धार्मिक गिने जाने वाले पुरुषों ने अपने सदाचार में निष्ठा और दुराचार की हेयता स्वीकार की है। उन्होंने मृत्यु के साथ ही जीवन का अन्त नहीं माना, किन्तु जन्म-जन्मान्तर की कल्पना कर इस आशा से सदाचार में निष्ठा स्थिर रखी है कि, कृत-कर्म का फल कभी तो मिलेगा ही, और उन्होंने परलोक के विषय में भिन्न-भिन्न कल्पनाएँ की हैं।
__ वैदिक-परम्परा में देवलोक और देवों की कल्पना प्राचीन है, किन्तु वेदों में इस कल्पना को बहुत समय बाद स्थान मिला कि देवलोक मनुष्य की मृत्यु के बाद का परलोक है । नरक और नारको सम्बन्धी कल्पना तो वेद में सर्वथा अस्पष्ट है । विद्वानों ने यह बात स्वीकार की है कि, वैदिकों ने परलोक एवं पुनर्जन्म की जो कल्पना की है, उसका कारण वेद-बाह्य प्रभाव है।
जैनों ने जिस प्रकार कर्म-विद्या को एक शास्त्र का रूप दिया, उसी प्रकार इस विद्या से अविच्छिन्न रूपेण सम्बद्ध परलोक-विद्या को भी शास्त्र का ही रूप प्रदान किया। यही कारण है कि, जैनों की देव एवं नारक सम्बन्धी कल्पना में व्यवस्था और एक-सूत्रता है। प्रागम से लेकर आज तक के रचित जन-साहित्य में देवों और नारकों के वर्णन-विषयक महत्वहीन अपवादों की उपेक्षा करने पर मालूम होगा कि, उसमें लेशमात्र भी विवाद दृग्गोचर नहीं होता। बौद्ध-साहित्य के पढ़ने वाले पग-पग पर यह अनुभव करते हैं कि, बौद्धों में यह विद्या बाहर से आई है। बौद्धों के प्राचीन सूत्र-ग्रन्थों में देवों अथवा नारकों की संख्या में एकरूपता नहीं है । यही नहीं, देवों के अनेक प्रकार के नामों में वर्गीकरण तथा व्यवस्था का भी प्रभाव है, परन्तु अभिधम्म-काल में बौद्ध-धर्म में देवों और नारकों की सुव्यवस्था हुई थी। यह बात भी स्पष्ट है कि, प्रेतयोनि जैसी योनि की कल्पना बौद्ध-धर्म अथवा उसके सिद्धान्तों के अनुकूल नहीं है, फिर भी लौकिक व्यवहार के कारण उसे मोन्यता प्राप्त हुई। (1) वैदिक देव और देवियाँ :
वेदों में वर्णित अधिकतर देवों की कल्पना प्राकृतिक वस्तुओं के प्राधार पर की गई है । प्रारम्भ में अग्नि जैसे प्राकृतिक पदार्थों को ही देव माना गया था, किन्तु धीरे-धीरे अग्नि आदि तत्त्व से पृयक अग्नि आदि देवों की कल्पना की गई। कुछ ऐसे भी देव हैं जिनका प्रकृतिगत किसी वस्तु से सरलता-पूर्वक सम्बन्ध स्थापित नहीं किया जा सकता, जैसे कि वरुण
आदि । कुछ देवताओं का सम्बन्ध क्रिया से है, जैसे कि त्वष्टा, धाता, विधातादि । देवों के विशेषण-रूप में जो शब्द लिखे गए, उनके आधार पर उन नामों के स्वतन्त्र देवों की भी कल्पना की गई; जैसे कि विश्वकर्मा इन्द्र का विशेषण था, किन्तु इस नाम का स्वतन्त्र देव भी माना गया। यही बात प्रजापति के विषय में हुई। इसके अतिरिक्त मनुष्य के भावों पर देवत्व का
1. 2. 3.
Ranade & Belvelkar : Creative Period p. 375 Dr. Law : Heaven & Hell (Introduction) Buddhist conception of spirits. इस प्रकरण को लिखने में डॉ० देशमुख की पुस्तक Religion in Vedic Literature Chepter 9-13 से सहायता ली गई है। मैं उनका आभार मानता हूँ।
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