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________________ 150 अनुसरण करते हुए प्राचार्य हरिभद्र आदि ने यह भावना अवश्य व्यक्त की है कि, मैंने जो कुशल कर्म किया हो, तो उसका लाभ ग्रन्य जीवों को भी मिले और वे सुखी हों । (इ) परलोक विचार गणधरवाद में पाँचवें गणधर सुधर्मा ने इस भव तथा परभव के सादृश्य- वैसादृश्य की चर्चा की है। सातवें गणधर मौर्य-पुत्र ने देवों के विषय में सन्देह उपस्थित किया है । आठवें गणधर अकंपित ने नारकों के विषय में शंका की है। दसवें गणधर मेतार्य ने पूछा है कि, परलोक है अथवा नहीं ? इस तरह अनेक प्रकार से परलोक के प्रश्न की चर्चा हुई है, अतः यहाँ परलोक के सम्बन्ध में भी विचार करना उचित है । परलोक का अर्थ है मृत्यु के बाद का लोक मृत्यूपरान्त जीव की जो विविध गतियाँ होती हैं, उनमें देव, प्रेत, और नारक ये तीनों अप्रत्यक्ष हैं, अतः सामान्यतः परलोक की चर्चा में इन पर ही विशेष विचार किया जाएगा । वैदिकों, जैनों और बौद्धों की देव, प्रेत एवं नारकियों सम्बन्धी कल्पनाओं का यहाँ निरूपण किया जाएगा। मनुष्य और तिर्यञ्च योनियाँ तो सबको प्रत्यक्ष हैं, अतः इनके विषय में विशेष विचार करने की आवश्यकता नहीं रहती । भिन्न-भिन्न परम्परात्रों में इस सम्बन्ध में जो वर्गीकरण किया गया है, वह भी ज्ञातव्य तो हैं, किन्तु यहाँ उसकी चर्चा प्रासंगिक होने के कारण नहीं की गई है । गणधरवाद कर्म और परलोक - विचार ये दोनों परस्पर इस प्रकार सम्बद्ध हैं कि, एक के अभाव में दूसरे की सम्भावना नहीं । जब तक कर्म का अर्थ केवल प्रत्यक्ष क्रिया ही किया जाता था, तब तक उसका फल भी प्रत्यक्ष ही समझा जाता था। किसी ने कपड़े सीने का कार्य किया और उसे उसके फल स्वरूप सिला हुआ कपड़ा मिल गया। किसी ने भोजन बनाने का काम किया और उसे रसोई तैय्यार मिली । इस प्रकार यह स्वाभाविक हैं कि प्रत्यक्ष क्रिया का फल साक्षात् और तत्काल माना जाए। किन्तु एक समय ऐसा प्राया कि, मनुष्य ने देखा कि उसकी सभी क्रियाओं का फल साक्षात् नहीं मिलता और न ही तत्काल प्राप्त होता है । किसान खेती करता है, परिश्रम भी करता है, किन्तु यदि ठीक समय पर वर्षा न हो तो उसका सारा श्रम धूल में मिल जाता है । फिर यह भी देखा जाता है कि, नैतिक नियमों का पालन करने पर भी संसार में एक व्यक्ति दु:खी रहता है और दूसरा दुराचारी होने पर भी सुखी । यदि सदाचार से सुख की प्राप्ति होती हो, तो सदाचारी को सदाचार के फल स्वरूप सुख तथा दुराचारी को दुराचार का फल दुःख साक्षात् और तत्काल क्यों नहीं मिलता ? नवजात शिशु ने ऐसा क्या किया है कि, वह जन्म लेते ही सुखी या दुःखी हो जाता है ? इत्यादि प्रश्नों पर विचार करते हुए जब मनुष्य ने कर्म के सम्बन्ध में अधिक गहन विचार किया तब इस कल्पना ने जन्म लिया कि कर्म केवल साक्षात् क्रिया नहीं, अपितु प्रदृष्ट-संस्कार रूप भी है । इसके साथ ही परलोक - चिन्ता सम्बद्ध थी । यह माना जाने लगा कि, मनुष्य के सुख-दुःख का आधार केवल उसकी प्रत्यक्ष क्रिया नहीं, परन्तु इसमें परलोक या पूर्वजन्म की क्रिया का जो संस्कार से अथवा प्रदृष्ट रूप से उसकी प्रात्मा से बद्ध है, भी एक महत्वपूर्ण भाग है । यही कारण है कि, प्रत्यक्ष सदाचार के प्रस्तित्व में भी मनुष्य पूर्वजन्म के दुराचार का फल दुःख-रूपेण भोगता है और प्रत्यक्ष दुराचारी होने पर भी पूर्वजन्म के सदाचार का फल सुख-रूपेण भोगता है । बालक पूर्वजन्म के संस्कार अथवा कर्म अपने साथ लेकर आता है, अतः इस जन्म में कोई कर्म न करने पर भी वह सुख-दुःख का भागी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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