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गणधरवाद
उक्त प्रकृतियों का एक और रीति से भी विभाजन किया गया है :-ध्र वोदया और अध्र बोदया । जिनका उदय स्वोदय-व्यवच्छेद काल पर्यन्त कभी भी विच्छिन्न नहीं होता वे ध्र वोदया और जिनका उदय विच्छिन्न हो जाता है और जो फिर उदय में आती हैं उन्हें अध्र वोदया कहते हैं।
सम्यक्त्व आदि गुणों की प्राप्ति होने से पूर्व उक्त प्रकृतियों में से जो प्रकृतियाँ समस्त संसारी जीवों में विद्यमान होती हैं, उन्हें ध्र वसत्ताका और जो नियमत: विद्यमान नहीं होती, उन्हें अध्र वसत्ताका कहते हैं।
उक्त प्रकृतियों के दो विभाग इस प्रकार भी किये जाते हैं :---अन्य प्रकृति के बन्ध अथवा उदय किंवा इन दोनों को रोककर जिस प्रकृति का बन्ध अथवा उदय किंवा दोनों हों, उसे परावर्तमाना और जो इससे विपरीत हो वह अपरावर्तमाना कहलाती है ।
उक्त प्रकृतियों में से कुछ ऐसी हैं जिनका उदय उस समय ही होता है जब जीव नवीन शरीर को धारण करने के लिए एक स्थान से दूसरे स्थान को जा रहा हो । अर्थात् उनका उदय विग्रह-गति में ही होता है। ऐसी प्रकृतियों को क्षेत्र-विपाकी कहते हैं। कुछ ऐसी प्रकृतियाँ हैं जिनका विपाक जीव में होता है, उन्हें जीव-विपाकी कहते हैं। कुछ प्रकृतियों का विपाक नर-नारकादि भव-सापेक्ष है, उन्हें भव-विपाकी कहते हैं । कुछ का विपाक जीव-सम्बद्ध शरीरादि पुद्गलों में होता है, उन्हें पुद्गल-विपाकी कहते हैं ।
जिस जन्म में कर्म का बन्धन हुया हो उसी में ही उसका भोग हो, यह कोई नियम नहीं है, किन्तु उसी जन्म में अथवा अन्य जन्म में किंवा दोनों में कृत-कर्म को भोगना पड़ता है।
जैन-दृष्टि के आधार पर जिस वस्तुस्थिति का ऊपर वर्णन किया गया है, उसकी तुलना में अन्य ग्रन्थों में उपलब्ध मान्यताओं का भी यहाँ उल्लेख करना उचित प्रतीत होता है।
योग-दर्शन में कर्म का विपाक तीन प्रकार का बताया गया है :---जाति, आयु, और भोग । जैन-सम्मत नाम-कर्म के विपाक की तुलना योग-सम्मत जाति-विपाक से, आयु-कर्म के विपाक की तुलना आयु-विपाक से की जा सकती है। योग-दर्शन के अनुसार भोग का अर्थ है-- सुख, दुःख और मोह', अतः जैन-सम्मत वेदनीय-कर्म के विपाक की इस भोग से तुलना सम्भव है । योग-दर्शन में मोह का अर्थ व्यापक है, उसमें अप्रतिपत्ति और विप्रतिपत्ति दोनों का समावेश है। अतः जैन-सम्मत ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और मोहनीय कर्म के विपाक योग-दर्शन-सम्मत मोहनीय के सदृश हैं।
1. पंचम कर्मग्रन्थ गाथा 6-7 2. पंचम कर्मग्रन्थ गाथा 8-9 3. पंचम कर्मग्रन्थ गाथा 18-19 4. पंचम कर्मग्रन्थ गाथा 19-21 5. स्थानांग सूत्र 77
योग-दर्शन 2.13 7. योगभाष्य 2 13
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