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प्रस्तावना
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विपाक के सम्बन्ध में जैन-मत में जैसे प्रत्येक कर्म का विपाक नियत है, वैसे योग-दर्शन में नियत नहीं है । योग-मत के अनुसार संचित समस्त कर्म मिलकर उक्त जाति, आयु, भोगरूप विपाक का कारण बनते हैं ।
न्यायवार्तिककार ने कर्म के विपाक-काल को अनियत वर्णित किया है। यह कोई नियम नहीं है कि, कर्म का फल इसी लोक में या परलोक में अथवा जात्यन्तर में ही मिलता है । कर्म अपना फल उसी दशा में देते हैं जब सहकारी कारणों का सन्निधान हो तथा सन्निहित कारणों में भी कोई प्रतिबन्धक न हो। यह निर्णय करना कठिन है कि, यह शर्त कब पूरी हो । इस चर्चा के अन्तर्गत यह भी बताया गया है कि, अपने ही विपच्यमान-कर्म के अतिशय द्वारा अन्य कर्म की फल-शक्ति का प्रतिबन्ध सम्भव है। समान भोग वाले अन्य प्राणियों के विपच्यमान-कर्म द्वारा भी कर्म की फल-शक्ति के प्रतिबन्ध की सम्भावना है। ऐसी अनेक सम्भावनाओं का उल्लेख करने के पश्चात् वातिककार ने लिखा है कि, कर्म की गति दुर्विज्ञेय है, मनुष्य इस प्रक्रिया के पार का पता नहीं लगा भकता' ।
____ जयन्त ने न्यायमञ्जरी में कहा है कि, विहित कर्म के फल का काल-नियम निर्धारित नहीं किया जा सकता। कुछ विहित कर्म ऐसे हैं जिनका फल तत्काल मिलता है—जैसे कारीरी यज्ञ का फल वृष्टि । कुछ विहित-कर्मों का फल ऐहिक होते हुए भी काल-सापेक्ष है-जैसे पुत्रेष्टि का फल पुत्र; तथा ज्योतिष्टोम आदि का फल स्वर्गादि परलोक में मिलता है। किन्तु सामान्य रूप से यह नियम निश्चित किया जा सकता है कि, निषिद्ध कर्म का फल तो परलोक में ही मिलता है।
योग-दर्शन में कर्माशय और वासना में भेद किया गया है । एक जन्म में संचित कर्म को कर्माशय कहते हैं तथा अनेक जन्मों के कर्मों के संस्कार की परम्परा को वासना कहते हैं । कर्माशय का विपाक दो प्रकार का है-अदृष्टजन्म-वेदनीय और दृष्टजन्म-वेदनीय । जिसका विपाक दूसरे जन्म में मिले वह अदृष्टजन्म-वेदनीय तथा जिसका विपाक इस जन्म में मिल जाए वह दृष्टजन्म-वेदनीय कहलाता है । विपाक के तीन भेद हैं :--जाति अथवा जन्म, आयु और भोग । अर्थात् अदृष्टजन्म-वेदनीय के तीन फल हैं--नवीन जन्म, उस जन्म की आयु और उस जन्म का भोग । किन्तु दृष्टजन्म-वेदनीय कर्माशय का विपाक आयु व भोग अथवा केवल भोग है, जन्म नहीं। यदि यहाँ भी जन्म का विपाक स्वीकार किया जाए तो वह अदृष्टजन्म-वेदनीय
1. तस्माज्जन्मप्रापणान्तरे कृतः पुण्यापुण्यकर्माशयप्रचयो विचित्र : प्रधानोपसर्जनभावेनावस्थितः
प्रायेणाभिव्यक्तः एकप्रघट्टकेन मिलित्वा मरणं प्रसाध्य सन्मूछित एकमेव जन्म करोति, तच्च जन्म तेनैव कर्मणा लब्धायुष्कं भवति । तस्मिन्नायुषि तेनैव कर्मणा भोगः सम्पद्यते इति ।
असौ कर्माशयो जन्मायुर्भोगतहेतुत्वात् त्रिविपाकोऽभिधीयते ।--योगभाष्य 2.13 __ न्यायवा० 3.2.61 3. न्यायमञ्जरी पृ० 505, 275
योगभाष्य 2.13
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