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________________ प्रस्तावना अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ; प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ, संज्वलन क्रोध, मान, माया, लोभ – ये 16 कषाय, स्त्री, पुरुष, नपुंसक ये तीन वेद; तथा हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा ये छह हास्यादि षट्क; इस प्रकार नव नोकषाय ये सब मिलकर मोहनीय के 26 भेद हैं। नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव ये श्रायु के चार प्रकार हैं । नाम कर्म के 67 भेद ये हैं :- नारक, तिर्यञ्च, मनुष्य एवं देव ये चार गति; एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, और पञ्चेन्द्रिय ये पाँच जानि; श्रदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस और कार्मण ये पाँच शरीर; प्रदारिक, वैक्रिय और आहारक इन तीनों के अंगोपांग; वज्रऋषभनाराच संहनन, ऋषभनाराच संहनन, नाराच संहनन, अर्धनाराच संहनन, कीलिका संहनन, सेवार्त संहनन ये छह संहनन; समचतुरस्र, न्यग्रोध, सादि, कुब्ज, वामन, हुण्ड ये छह संस्थान, वर्ण, रस, गन्ध, स्पर्श ये वर्णादि चार; नारकादि चार श्रानुपूर्वी प्रशस्त एवं अप्रशस्त दो विहायोगति; परघात, उच्छ्वास, प्रातप, उद्योत, अगुरुलघु, तीर्थ, निर्माण, उपघात ये आठ प्रत्येक प्रकृति; त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, देय, यशः कीर्ति ये त्रस दशक; और इसके विपरीत स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण, अस्थिर, अशुभ, सुभग, दुःस्वर, अनादेय, अयशःकीर्ति ये स्थावर दशक । गोत्र के दो भेद हैं-- उच्च गोत्र, नीच गोत्र । दानान्तराय, लाभान्तराय, भोगान्तराय, उपभोगान्तराय तथा वीर्यान्तराय ये पाँच ग्रन्तराय के भेद हैं । मिथ्यात्व मोह का ऊपर एक भेद गिना है, यदि उसके तीन भेद गिने जाएँ तो उदय और उदीरणा की अपेक्षा से 122 प्रकृति होती है । इसका कारण यह है कि बन्ध तो एक मिथ्यात्व का होता है, किन्तु जीव अपने अध्यवसाय द्वारा उसके तीन पुञ्ज (समूह) कर लेता है -- शुद्ध, अर्ध-विशुद्ध और शुद्ध । उन्हें क्रम से मिथ्यात्व मिश्र और सम्यक्त्व कहते हैं । श्रतः बन्ध एक होते हुए भी उदय तथा उदीरणा की अपेक्षा से तीन प्रकृतियाँ गिनी जाती हैं । ग्रतः उदय और उदीरणा की अपेक्षा से 120 के स्थान में 122 प्रकृतियाँ हैं, किन्तु कर्म की सत्ता की दृष्टि से नाम कर्म के उत्तर भेद 67 की जगह 93 मानें तो 148 और 103 मानें तो वे 158 हो जाती हैं | ऊपर वर्णन की गई नाम - कर्म की 67 प्रकृतियों में पाँच बन्धन, पाँच संघात ये दस और वर्ण चतुष्क की जगह उसके बीस उपभेद गिनें तो 16- - इस प्रकार कुल 26 और मिलाने से 93 भेद होते हैं । यदि पाँच बन्धन के स्थान में पनरह बन्धन मानें तो 103 भेद होते हैं । इन सब प्रकृतियों का वर्गीकरण पुण्य एवं पाप में किया गया है । इस विषय में प्रस्तुत ग्रन्थ में निर्देश है, अतः यहाँ उसका विवेचन अनावश्यक है । इसके अतिरिक्त इनके दो विभाग और किये गये हैं- ध्रुव-बन्धिनी और प्रध्रुवबन्धिनी । जो प्रकृतियाँ बन्ध हेतु के होने पर भी आवश्यक रूप से बन्ध में नहीं आती, उन्हें ध्रुवबन्धिनी कहते हैं और जो हेतु के अस्तित्व में प्रवश्य ही बद्ध होती हैं उन्हें ध्रुवबन्धिनी 2 कहते हैं । 1. 2. गाथा 1946 पंचम कर्मग्रन्थ गाथा 1-4 143 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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