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________________ 142 है | चूल्हे पर रखते ही कोई भी चीन पक नहीं जाती, जैसी वस्तु हो उसी के पकने में समय लगता है। इसी प्रकार विविध कर्मों का पाककाल भी एक जैसा के इस पाक योग्यता - काल को जैन- परिभाषा में 'प्राबाधाकाल' कहते हैं । कर्म के इस प्रबाधाकाल के व्यतीत होने पर ही कर्म अपना फल देना प्रारम्भ करते हैं । इसे ही कर्म का उदय कहते हैं । कर्म की जितनी स्थिति का बन्ध हुआ हो, उतनी अवधि में कर्म के परमाणु क्रमशः उदय में प्राते हैं और फल प्रदान कर प्रात्मा से अलग हो जाते हैं । इसे कर्म की निर्जरा कहते हैं । जब ग्रात्मा से सभी कर्म अलग हो जाते हैं, तब जीव मुक्त हो जाता है । गणधरवाद यह कर्म-बन्ध प्रक्रिया और कर्म-फल- प्रक्रिया की सामान्य रूपरेखा है । यहाँ इनकी गहराई में जाने की आवश्यकता नहीं है । (13) कर्म का कार्य श्रथवा फल : सामूहिक रूप से कर्म का कार्य यह है कि जब तक कर्म-बन्ध का अस्तित्व हैं, तब तक जीव मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकता । समस्त कर्मों की निर्जरा होने पर ही मोक्ष होता है । कर्म की आठ मूल प्रकृतियाँ ये हैं :- ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय, अन्तराय, वेदनीय, आयु, गोत्र । नाम, अनुसार उसके नहीं है । कर्म इनमें से प्रथम चार घाती कहलाती हैं । इसका कारण यह है कि, इन से आत्मा के गुणों को घात होता है । अन्तिम चार ग्रघाती हैं । इनसे आत्मा के किसी गुण का घात नहीं होता, परन्तु ये श्रात्मा को वह स्वरूप प्रदान करते हैं जो उसका वास्तविक नहीं है । सारांश यह है कि, घाती कर्म आत्मा के स्वरूप का घात करते हैं और प्रघाती कर्म उसे वह रूप देते हैं जो उस का निजी नहीं है । दर्शन-मोहनीय से तत्त्वरुचि अथवा सम्यक्त्व गुण का घात होता है परमसुख अथवा सम्यक् चारित्र का । अन्तराय वीर्यादिशक्ति के इस तरह घाती कर्म आत्मा की विविध शक्तियों का घात करते हैं । ज्ञानावरण आत्मा के ज्ञान गुण का घात करता है और दर्शनावरण दर्शन गुण का । और चारित्र - मोहनीय से प्रतिघात का कारण है। प्राविर्भाव का वेदनीय कर्म श्रात्मा में ग्रनुकूल अथवा प्रतिकूल वेदना के कारण है । ग्रायु कर्म द्वारा आत्मा नारकादि विविध भवों की प्राप्ति और स्थिति करता है । जीवों को विविध गति, जाति, शरीर आदि की उपलब्धि नाम कर्म के कारण होती है । जीवों में उच्चत्व नीचत्व गोत्र कर्म के कारण उत्पन्न होता है । उक्त ग्राठ मूल प्रकृतियों के उत्तर भेदों की संख्या बन्ध की अपेक्षा से 120 है । ज्ञानावरण के पाँच, दर्शनावरण के नव, वेदनीय के दो, मोहनीय के छब्वीस, आयु के चार, नाम के सडसठ, गोत्र के दो और अन्तराय के पाँच भेद हैं । इनका विवरण इस प्रकार है— Jain Education International मतिज्ञानावरण. श्रुतज्ञानावरण, ग्रवधिज्ञानावरण, मनः पर्ययज्ञानावरण और केवल - ज्ञानावरण ये पाँच ज्ञानावरण हैं । चक्षुर्दर्शनावरण, अचक्षुर्दर्शनावरण, अवधिदर्शनावरण, केवलदर्शनावरण, निद्रा, निद्रानिद्रा, प्रचला, प्रचलाप्रचला, स्त्यानद्धि ये तव दर्शनावरण हैं। सात और असात दो प्रकार का वेदनीय होता है । मिथ्यात्व अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ, For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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