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________________ 1?8 गणधरवाद वर्णन है, किन्तु अभिधर्म में पाकस्थान की दृष्टि से चार भेद अधिक प्रतिपादित किये गये हैं । योग-दर्शन में भी इन दृष्टियों के आधार पर कर्म सम्बन्धी सामान्य विचारणा है, किन्तु गणना बौद्धों से भिन्न है । इन सब बातों के होते हुए भी यह स्वीकार करना पड़ता है कि, एक प्रकार से नहीं अपितु अनेक प्रकार से कर्मों के भेद का व्यवस्थित वर्गीकरण जसा जन-ग्रन्थों में उपलब्ध होता है, वैसा अन्यत्र दुर्लभ है । जैन-शास्त्रों में कर्म की प्रकृति अथवा स्वभाव की दृष्टि से कर्म के आठ मूल भेदों का वर्णन है :-. ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय । इन पाठ मूल भेदों की अनेक उत्तर-प्रकृतियों का विविध जीवों की अपेक्षा से विविध प्रकार से निरूपण भी वहाँ उपलब्ध होता है । बन्ध, उदय, उदीरणा, सत्ता आदि की दृष्टि से किस जीव में कितने कर्म होते हैं, उन का वर्गीकृत व्यवस्थित प्रतिपादन भी वहाँ दृग्गोचर होता है । यहाँ इन सब बातों का विस्तार अनावश्यक है, जिज्ञासु उसे अन्यत्र देख सकते है। (10) कर्म-बन्ध के प्रबल कारण : योग और कषाय दोनों ही कर्म-बन्धन के कारण गिने गये हैं, किन्तु इन दोनों में प्रबल कारण कषाय ही है। यह एक सर्वसम्मत सिद्धान्त है। किन्तु अात्मा के इन कषायों की अभिव्यक्ति मन, वचन और काय से ही होती है। इन तीनों में से किसी एक का आश्रय लिए बिना कषायों के व्यक्त होने का अन्य कोई भी मार्ग नहीं है । ऐसी दशा में प्रश्न होता है कि मन, वचन, काय इन तीनों में कौन-सा पालम्बन प्रबल है ? मन एव मनुष्य गां कारणं बन्धमोक्षयोः । बन्धाय विषयासक्त मुक्त्यै निविषयं स्मृतम् ॥ ब्रह्मबिन्दु उपनिषद् (2) के उपर्युक्त कथन से सिद्ध होता है कि, मन ही प्रबल कारण है । काय और वचन की प्रवृत्ति में मन सहायक माना गया है। यदि मन का सहयोग न हो तो वचन अथवा काय की प्रवृत्ति अव्यवस्थित होती है, अतः उपनिषद् के अनुसार मन, वचन, काय में मन की ही प्रबलता है । इसीलिए अर्जुन ने कृष्ण को कहा, 'चञ्चलं हि मनः कृष्ण" इस चंचल मन को वश में करना सरल नहीं है । जब तक इसका सर्वथा क्षय न हो जाए, इसका निरोध जारी रहना चाहिए । जब ग्रात्मा मन का पूर्ण निरोध कर लेती है, तब ही वह परमपद को प्राप्त करती है । जैनों के समान उपनिषदों में इस मन को दो प्रकार का माना गया है-शुद्ध और अशुद्ध । काम या संकल्प रूप मन अशुद्ध है और उससे रहित शुद्ध। अशुद्ध मन संसार 1. योग-सूत्र 2.12-14 2. कर्मग्रन्थ 1-6; गोमट्टसार कर्मकाण्ड 3. भगवद् गीता 6.34 4. तावदेव निरोद्धव्य यावद् हृदि गतं क्षयम् । एतज्ज्ञानं च मोक्षं च अतोऽन्यो ग्रन्थविस्तरः ॥ ब्रह्मबि० 5 5. ब्रह्मबिन्दु 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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