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प्रस्तावना
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पद्गल द्रव्य है, गुण है, धर्म है अथवा अन्य कोई स्वतन्त्र द्रव्य है। इस विषय में दार्शनिकों का मतभेद तो है, परन्तु वस्तु के सम्बन्ध में विशेष विवाद नहीं है । अब हम इस कर्म अथवा द्रव्यकर्म के भेद आदि पर विचार करेंगे । (9) कर्म के प्रकार :
दार्शनिकों ने विविध प्रकार से कर्म के भेद किए हैं, परन्तु पुण्य-पाप, कुशल-अकुशल, शुभ-अशुभ, धर्म-अधर्म रूप भेद सभी दर्शनों को मान्य हैं । अतः हम कह सकते हैं कि, कर्म के पुण्य-पाप अथवा शुभ-अशुभ रूप भेद प्राचीन हैं और कर्म-विचारणा के प्रारम्भिक काल में यही दो भेद हुए होंगे । प्राणी जिस कर्म के फल को अनुकूल अनुभव करता है वह पुण्य है और जिस फल को प्रतिकूल समझता है वह पाप है। इस प्रकार के भेद उपनिषद, जैन, सांख्य, बौद्ध, योग, न्याय-वैशेषिक इन सब दर्शनों में दृष्टिगोचर होते हैं। फिर भी वस्तुतः सभी दर्शनों ने पुण्य एवं पाप इन दोनों ही कर्मों को बन्धन ही माना है और इन दोनों से मुक्त होना अपना ध्येय निश्चित किया है । फलत: विवेकशील व्यक्ति कर्म-जन्य अनुकूल वेदना को भी सुखरूप न मानकर दुःखरूप ही स्वीकार करते हैं।
कर्म के पुण्य, पाप रूप दो भेद वेदना की दृष्टि से किये गये हैं, किन्तु वेदना के अतिरिक्त अन्य दृष्टियों से भी कर्म के भेद किये जाते हैं । वेदना के नहीं किन्तु कर्म को अच्छा
और बुरा समझने की दृष्टि को सन्मुख रखकर बौद्ध और योग-दर्शन में कृष्ण, शुक्ल, शुक्लकृष्ण, तथा अशुक्लाकृष्ण नामक चार भेद किये गये हैं । कृष्ण पाप है, शुक्ल पुण्य है, शुक्ल कृष्ण पुण्य-पाप का मिश्रण है और अशुक्लाकृष्ण इन दोनों में से कोई भी नहीं; क्योंकि यह कर्म वीतराग पुरुषों का ही होता है । इसका विपाक न सुख है और न ही दुःख । कारण यह है कि उनमें राग-द्वेष नहीं होता।
__ इसके अतिरिक्त कृत्य, पाक दान और पाककाल की दृष्टि से भी कर्म के भेद किये गये हैं। बौद्धों के अभिधर्मकोश और विशुद्धिमार्ग में समान रूप से कृत्य की दृष्टि से चार, पाकदान की दृष्टि से चार और पाककाल की दृष्टि से चार इस प्रकार बारह प्रकार के कर्म का
1. बृहदारण्यक 3.2 13; प्रश्न. 3.7
पंचम कर्मग्रन्थ गा० 15-77: तत्त्वार्थ 8.21 3. सांख्यका० 44 4. विसुद्धिमग्ग 17.88 5. योग-सूत्र 2.14; योग-भाष्य 2.12 6. न्यायमञ्जरी पृ० 472; प्रशस्तपाद पृ० 637, 643 7. परिणामतापसंस्कारदु खैर्गुणवृत्तिविरोधात् च दुःखमेव सर्वं विवेकिनः । योग-सूत्र 2.15 8. योग-दर्शन 4.7; दीघनिकाय 3 1.2; बुद्धचर्या पृ० 496 9. योग-दर्शन 47 10. अभिधम्मत्थ संग्रह 5.19; विसुद्धिमग्ग 19.14-16 इन भेदों की चर्चा आगे की
जाएगी।
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