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________________ प्रस्तावना 139 का साधन है और शुद्ध मन मोक्ष का । जैन मान्यतानुसार जब तक कषाय का नाश नहीं हो जाता, तब तक अशुद्ध मन विद्यमान रहता है। क्षीण कषाय वीतराग छगस्य गुणस्थानक नामक बारहवें गुणस्यान में और बाद में शुद्ध मन होता है। केवली सर्वप्रथम इसका निरोध करता है और तत्पश्चात् वचन एवं काय का निरोध करता है। इससे सिद्ध होता है कि, जब तक मन का निरोध न हो जाए, तब तक वचन और काय के निरोध का प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता । वचन और काय का संचालक बल मन है। इस बल के समाप्त होने पर वचन और काय निर्बल हो कर निरुद्ध हो जाते हैं । अतः मन, वचन, काय की प्रवृत्तियों में जैनों ने मन की वृत्ति को प्रबल माना है । हिंसा-अहिंसा के विचार में भी काय-योग अथवा वचन-योग के स्थान पर मानसिक अध्यवसाय, राग तथा द्वेष को ही कर्म-बन्ध का मुख्य कारण माना है। इस बात की चर्चा प्रस्तुत ग्रन्थ में भी है, अतः यहाँ विस्तार की आवश्यकता नहीं है। ऐसा होने पर भी बौद्धों ने जैनों पर प्राक्षेप किया है कि, जैन काय-कर्म अथवा काय-दण्ड को ही महत्व प्रदान करते हैं। यह उनका भ्रम है। इस भ्रम का कारण साम्प्रदायिक विदेष तो है ही, इस के अतिरिक्त जैनों के प्राचार-नियमों में बाह्याचार पर जो अधिक जोर दिया गया है, वह भी इस भ्रांति का उत्पादक है । जैनों ने इस विषय में वौद्धों का जो खण्डन किया है, उससे भी यह प्रतीति सम्भव है कि, शायद जैन बौद्धों के समान मन को प्रबल कारण नहीं मानते, अन्यथा वे बौद्धों के इस मत का खण्डन क्यों करे ? ___ यह लिखने की आवश्यकता नहीं है कि जैनों के समान बौद्ध भी मन को ही कर्म का प्रधान कारण मानते हैं। उपालि सुत्त में बौद्धों के इस भन्तव्य का स्पष्ट उल्लेख है। धम्मपद की निम्नलिखित प्रथम गाथा से भी इसी मत की पुष्टि होती है : 'मनोपुव्वंगमा धम्मा मनोसेट्टा मनोमया । मनसा चे पदुटुन भानति वा करोति वा । ततो नं दुक्खमन्वेति चक्कं व वहतो पदं ॥' ऐसी वस्तु स्थिति में भी बौद्ध टीकाकारों ने हिंसा-अहिंसा की विचारणा करते हुए आगे जाकर जो विवेचन किया है, उसमें मन के अतिरिक्त अन्य अनेक बातों का समावेश कर दिया । फलतः इस मूल मन्तव्य के विषय में उनका अन्य दार्शनिकों के साथ जो एकमत था, वह स्थिर नहीं रह सका। 1. विशेषावश्यक 3059-3064 2. गाथा 1762-68 मज्झिमनिकाय, उपालिसुत्त 2.2.6 सूत्रकृतांग 1.1.2.24 -32; 2.6.26-28; विशेष जानकारी के लिए ज्ञान बिन्दु की प्रस्तावना देखें--पृ० 30-35, टिप्पण पृ० 80-.7 । विनय की अटुकथा में प्राणातिपात सम्बन्धी विचार देखें। बौद्धों के ये वाक्य भी विचारणीय हैं :प्राणी प्राणीज्ञानं घातकचित्त च तद्गता चेष्टा । प्राणश्च विप्रयोगः पञ्चभिरापद्यते हिंसा । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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