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गणधरवाद
कार्य की उत्पत्ति केवल एक ही कारण पर पाश्रित नहीं, परन्तु उसका आधार कारण सामग्री पर है । इस सिद्धान्त के बल पर जैनाचार्यों ने कहा कि केवल कर्म ही कारण नहीं है, कालादि भी सहकारी कारण हैं। इस प्रकार सामग्रीवाद के आधार पर कर्म और कालादि का समन्वय हुप्रा।
- जैनाचार्य सिद्धसेन दिवाकर ने इस बात को मिथ्या धारणा माना है कि काल, स्वभाव नियति, पूर्वकृत-कर्म और पुरुषार्थ इन पांच कारणों में किसी एक को ही कारण माना जाय
और शेष कारणों की अवहेलना की जाए। उनके मतानुसार सम्यक् धारणा यह है कि, कार्यनिष्पत्ति में उक्त पाँचों कारणों का समन्वय किया जाए । प्राचार्य हरिभद्र ने भी शास्त्रवार्तासमुच्चय में इसी बात का समर्थन किया है। इससे ज्ञात होता है कि जैन भी कर्म को एकमात्र कारण नहीं मानते, परन्तु, गौण-मुख्य भाव की अपेक्षा से कालादि सभी कारणों को मानते हैं ।
प्राचार्य समन्तभद्र ने कहा है कि, देव (कर्म) और पुरुषार्थ के विषय में एकान्त दृष्टि का त्याग कर अनेकान्त दृष्टि ग्रहण करनी चाहिए। जहाँ मनुष्य ने बुद्धि पूर्वक प्रयत्न न किया हो
और उसे इष्ट अथवा अनिष्ट वस्तु की प्राप्ति हो, वहाँ मुख्यतः देव को मानना चाहिए; क्योंकि यहाँ पुरुष-प्रयत्न गौण है और देव प्रधान है । वे दोनों एक दूसरे के सहायक बनकर ही कार्य को पूर्ण करते हैं । परन्तु जहाँ बुद्धिपूर्वक प्रयत्न से इष्टानिष्ट की प्राप्ति हो, वहाँ अपने पुरुषार्थ को प्रधानता प्रदान करनी चाहिए अोर देव अथवा कर्म को गौण मानना चाहिए । इस प्रकार प्राचार्य समन्तभद्र ने देव और पुरुषार्थ का समन्वय किया है। (8) कर्म का स्वरूप
कर्म का साधारण अर्थ क्रिया होता है और वेदों से लेकर ब्राह्मण काल तक वैदिक परम्परा में यही अर्थ दृष्टिगोचर होता है। इस परम्परा में यज्ञयागादि नित्य-नैमित्तिक क्रियाओं को कर्म की संज्ञा दी गई है। यह माना जाता था कि. इन कर्मों का प्राचरण देवों को प्रसन्न करने के लिए किया जाता है और देव इन्हें करने वाले व्यक्ति की मनोकामना पूर्ण करते हैं । जैन परम्परा को कर्म का क्रिया रूप अर्थ मान्य है, किन्तु जैन इसका केवल यही अर्थ स्वीकार नहीं करते । संसारी जीव की प्रत्येक क्रिया अथवा प्रवृत्ति तो कर्म है ही, किन्तु जैन परिभाषा में इसे भाव-कर्म कहते हैं। इसी भाव-कर्म अर्थात् जीव की क्रिया द्वारा जो अजीव द्रव्य (पुद्गल द्रव्य) प्रात्मा के संसर्ग में आ कर पात्मा को बन्धन में बाँध देता है, उसे द्रव्य-कर्म कहते हैं। द्रव्य-कर्म पुद्गल द्रव्य है, उसकी संज्ञा औपचारिक है क्योंकि वह आत्मा की क्रिया या उसके कर्म से उत्पन्न होता है, अतः उसे भी कर्म कहते हैं । यहाँ कार्य में कारण का उपचार किया गया है। अर्थात् जैन परिभाषा के अनुसार कर्म दो प्रकार का है :-भाव-कर्म और द्रव्य-कर्म जीव की क्रिया भाव-कर्म है और उसका फल द्रव्य-कर्म । इन दोनों में कार्य-कारण भाव है :-भाव-कर्म कारण है और द्रव्य-कर्म कार्य। किन्तु यह कार्य-कारण भाव
1. कालो सहाव णियई पुव्वकम्म पुरिसकारणेगंता । मिच्छत्तं तं चेव उ समासमो हुंति सम्मत्तं । 2. अतः कालादयः सर्वे समुदायेन कारणम् । गर्भादेः कार्यजातस्य विज्ञेया न्यायवादिभिः ।
न चैकेकत एकेह क्वचित् किञ्चिदपीक्ष्यते । तस्मात् सर्वस्य कार्यस्य सामग्री जनि का मता। 3. आप्तमीमांसा का० 88.91
शास्त्रवार्ता० 2,79 80
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