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________________ प्रस्तावना 129 मुर्गी और उसके अंडे के कार्य-कारण भाव के सदृश है । मुर्गी से अंडा होता है, अतः मुर्गी कारण है और अंडा कार्य । यदि कोई व्यक्ति प्रश्न करे कि पहले मुर्गी थी या अंडा? तो इसका उत्तर नहीं दिया जा सकता । यह तथ्य है कि अंडा मुर्गी से होता है, परन्तु मुर्गी भी अंडे से ही उत्पन्न हुई है। अतः दोनों में कार्य-कारण भाव तो है परन्तु दोनों में पहले कौन, यह नहीं कहा जा सकता । संतति की अपेक्षा से इनका पारस्परिक कार्य-कारण भाव अनादि है । इसी प्रकार भावकर्म से द्रव्य-कर्म उत्पन्न होता है, अतः भाव-कर्म को कारण और द्रव्य-कर्म को कार्य माना जाता है । किन्तु द्रव्य-कर्म के अभाव में भाव-कर्म की निष्पत्ति नहीं होती, अतः द्रव्य-कर्म भावकर्म का कारण है । इस प्रकार मुर्गी और अंडे के समान भाव-कर्म और द्रव्य-कर्म का पारस्परिक अनादि कार्य-कारण भाव भी संतति की अपेक्षा से है। यद्यपि संतति के दृष्टिकोण से भाव-कर्म और द्रव्य-कर्म का कार्य-कारण भाव अनादि है, तथापि व्यक्तिशः विचार करने पर ज्ञात होता है कि, किसी एक द्रव्य-कर्म का कारण कोई एक भाव-कर्म ही होता होगा, अत: उन में पूर्वापर भाव का निश्चय किया जा सकता है। कारण यह है कि, जिस एक भाव-कर्म से किसी विशेष द्रव्य-कर्म की उत्पत्ति हुई है, वह उस द्रव्य-कर्म का कारण है और वह द्रव्य-कर्म उस भाव-कर्म का कार्य है, कारण नहीं । इस प्रकार हमें यह स्वीकार करना पड़ता है कि, व्यक्तिशः पूर्वापर भाव होने पर भी जाति की अपेक्षा से पूर्वापर भाव का अभाव होने के कारण दोनों ही अनादि हैं। यहाँ एक प्रश्न उपस्थित होता है। यह तो स्पष्ट है कि भाव-कर्म से द्रव्य-कर्म की उत्पत्ति होती है, क्योंकि अपने राग, द्वेष, मोहरूप परिणामों के कारण ही जीव द्रव्य-कर्म के बन्धन में बद्ध होता है अथवा संसार में परिभ्रमण करता है। किन्तु भाव-कर्म की उत्पत्ति में द्रव्य-कर्म को कारण क्यों माना जाए? इस प्रश्न का उत्तर यह दिया जाता है कि, यदि द्रव्य-कर्म के प्रभाव में भी भाव-कर्म की उत्पत्ति सम्भव हो, तो मुक्त जीवों में भी भाव-कर्म का प्रादुर्भाव होगा और उन्हें फिर संसार में आना होगा। यदि ऐसा होता है, तो फिर संसार और मोक्ष में कुछ भी अन्तर न रह जाएगा । जैसी बन्ध-योग्यता संसारी जीव में है, वैसी ही मुक्त जीव में माननी पड़ेगी । ऐसी दशा में कोई भी व्यक्ति मुक्त होने के लिए क्यों प्रयत्नशील होगा ? अतः हमें स्वीकार करना होगा कि. मुक्त जीव में द्रव्य-कर्म न होने के कारण भाव-कर्म भी नहीं है और द्रव्य-कर्म के होने के कारण संसारी जीव में भाव-कर्म की उत्पत्ति होती है। इस प्रकार भाव-कर्म से द्रव्य-कर्म और द्रव्य-कर्म से भाव-कर्म की अनादिकालीन उत्पत्ति होने के कारण जीव के लिए संसार अनादि है । __द्रव्य-कर्म की उत्पत्ति भाव-कर्म से होती है, अतः द्रव्य-कर्म भाव-कर्म का कार्य है। इन दोनों में जो कार्य-कारण भाव है, उसका भी स्पष्टीकरण आवश्यक है। मिट्टी का पिण्ड घटाकार में परिणत होता है, इसलिए मिट्टी को उपादान कारण माना जाता है। किन्तु कुम्हार न हो तो मिट्टी में घट-रूप बनने की योग्यता होने पर भी घट नहीं बन सकता, अत: कुम्हार निमित्त कारण है । इसी प्रकार पुद्गल में कर्म-रूप में परिणत होने का सामर्थ्य है, अतः पुद्गल द्रव्य-कर्म का उपादान कारण है, किन्तु जब तक जीव में भाव-कर्म की सत्ता न हो, पुद्गल द्रव्य-कर्म-रूप में परिणत नहीं हो सकता। इसलिए भाव-कर्म निमित्त कारण माना गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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