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________________ प्रस्तावना दिलाया हो,.... प्राणी का वध किया हो; चोरी की हो, घर में सेंध लगाई हो, डाका डाला हो, व्यभिचार किया हो, झूठ बोला हो, तो भी उसे पाप नहीं लगता । यदि कोई व्यक्ति तीक्ष्ण धार चाले चक्र से पृथ्वी पर माँस का बड़ा ढेर लगा दे तो भी इसमें लेशमात्र पाप नहीं है । गंगा नदी के दक्षिण तट पर जाकर कोई मारपीट करे, कत्ल करे या कराए, त्रास दे या दिलाए तो भी रत्ती भर पाप नहीं है । गंगा नदी के उत्तर तट पर जाकर कोई दान करे या कराए, यज्ञ करे या कराए तो इसमें कुछ भी पुण्य नहीं है । दान, धर्म, संयम, सत्य भाषण इन सबसे कुछ भी पुण्य नहीं होता । इसमें तनिक भी पुण्य नही है ।" जैन सूत्रकृतांग 2 में भी प्रक्रियावाद का ऐसा हो वर्णन है । पूरण का यह प्रक्रियावाद भी नियतिवाद के तुल्य है । (6) श्रज्ञानवादी हम संजय बेलट्ठी पुत्र के मत को न तो नास्तिक कह सकते हैं और न ही उसे प्रास्तिक की कोटि में रखा जा सकता है। वस्तुतः उसे तार्किक श्रेणी में रखना चाहिए। उसने परलोक, देव, नारक, कर्म, निर्वाण जैसे प्रदृश्य पदार्थों के विषय में स्पष्ट रूप से घोषणा की कि, इनके सम्बन्ध में विधिरूप, निषेधरूप, उभयरूप अथवा अनुभयरूप निर्णय करना शक्य ही नहीं है । " जिस समय ऐसे प्रदृश्य पदार्थों के विषय में अनेक कल्पनाओं का साम्राज्य स्थापित हो रहा हो, तब एक र नास्तिक उनका निषेध करते हैं और दूसरी ओर विचारशील पुरुष दोनों पक्षों के बलाबल पर विचार करने में तत्पर हो जाते हैं । इस विचारणा की एक भूमिका ऐसी भी होती है, जहाँ मनुष्य किसी बात को निश्चित रूप से मानने अथवा प्रतिपादित करने में समर्थ नहीं होता उस समय या तो वह संशय-वादी बन कर प्रत्येक विषय में सन्देह करने लग जाता है अथवा वह अज्ञानवाद की ओर झुक जाता है और कहने लगता है कि, सभी पदार्थों का ज्ञान सम्भव ही नहीं है। ऐसे अज्ञानवादियों के विषय में जैनागमों में कहा है कि, ये अज्ञानवादी तर्ककुशल होते हैं परन्तु असंबद्ध प्रलाप करते हैं, उनकी अपनी शंकाओं का ही निवारण नहीं हुआ है । वे स्वयं अज्ञानी हैं और प्रज्ञजनों में मिथ्या प्रचार करते हैं । (7) कालादि का समन्वय जिस प्रकार वैदिक दार्शनिकों ने वैदिक परम्परा सम्मत यज्ञकर्म और देवाधिदेव के साथ पूर्वोक्त प्रकार से कर्म का समन्वय किया, उसी प्रकार जैनाचार्यो ने जैन- परम्परा के दार्शनिक काल में कर्म के साथ कालादि कारणों के समन्वय करने का प्रयत्न किया । किसी भी 1. 2. 3. 127 4. बुद्धचरित पृ. 170, दीघनिकाय - सामफल सुत्त सूत्रकृतांग 1, 1, 1, 13 बुद्धचरित पृ. 178; इस मत के विरुद्ध भगवान् महावीर ने स्याद्वाद की योजना द्वारा वस्तु का अनेकरूपेण वर्णन किया है। न्यायावतारवार्तिकवृत्ति की प्रस्तावना देखें पृ. 39 से आगे । सूत्रकृतांग 1.12.2; महावीर स्वामीनो संयम धर्म (गु० ) पृ. 135; सूत्रकृतांग चूणि पृ० 255, इसका विशेष वर्णन creative period में देखें । पृ. 454 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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