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________________ 126 गणधरवाद "प्राणियों की अपवित्रता का कुछ भी कारण नहीं है । कारण के बिना ही वे अपवित्र होते हैं । उन के अपवित्र होने में न कोई कारण है, न हेतु । प्राणियों की शुद्धता का भी कोई कारण अथवा हेतु नहीं है। हेतु और कारण के बिना ही वे शुद्ध होते हैं। अपने सामर्थ्य के बल पर कुछ नहीं होता । पुरुष के सामर्थ्य के कारण किसी भी पदार्थ की सत्ता नहीं है । न बल है, न वीर्य, न ही पुरुष की शक्ति अथवा पराक्रम, सभी सत्त्व, सभी प्राणी, सभी जीव अवश हैं, दुर्बल हैं, वीर्यविहीन हैं । उन में भाग्य (नियति) जाति, वैशिष्ट्य और स्वभाव के कारण परिवर्तन होता है। छह जातियों में से किसी भी एक जाति में रहकर सब दुखों का उपभोग किया जाता है । चौरासी लाख महाकल्प के चक्र में घूमने के बाद बुद्धिमान् और मूर्ख दोनों के ही दुःख का नाश हो जाता है । यदि कोई कहे कि, 'मैं शील, व्रत, तप अथवा ब्रह्मचर्य से अपरिपक्व कर्मों को परिपक्व करूंगा, अथवा परिपक्व हुए कर्मों का भोग कर उन्हें नामशेष कर दंगा' तो ऐसी बात कभी भी होने वाली नहीं है । इस संसार में सुख-दुःख इस प्रकार अवस्थित है कि उन्हें परिमित पाली से नापा जा सकता है । उनमें वृद्धि या हानि नहीं हो सकती। जिस प्रकार सूत की गोली (गेंद) उतनी ही दूर जाती है जितना लम्बा उसमें धागा होता है उसी प्रकार बुद्धिमान और मूर्ख दोनों के दुःख (संसार) का नाश उसके चक्कर में पड़ने पर ही होता है।" ___ इसी प्रकार का ही किन्तु जरा आकर्षक ढंग का वर्णन जैनों के उपासकदशांग और भगवती सूत्र में है। इनके अतिरिक्त सूत्रकृतांग में भी अनेक स्थलों पर इस वाद के सम्बन्ध में ज्ञातव्य बातें मिलती हैं। बौद्ध पिटक में पकुध कात्यायन के मत का वर्णन इस प्रकार किया गया है:-"सात पदार्थ ऐसे हैं जो किसी ने बनाए नहीं, बनवाए नहीं। उनका न तो निर्माण किया गया और न कराया गया। वे वन्ध्य हैं, कूटस्थ हैं और स्तम्भ के समान अचल हैं । वे हिलते नहीं; बदलते नहीं और एक दूसरे के लिए त्रासदायक नहीं। वे एक दूसरे के दुःख को, सुख को या दोनों को उत्पन्न नहीं कर सकते । वे सात तत्व ये हैं-पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजकाय, वायुकाय, सुख ,दु ख और जीव । इनका नाश करने वाला, करवाने वाला, इनको सुनने वाला, कहने वाला, जानने वाला अथवा इनका वर्णन करने वाला कोई भी नहीं है ।" यदि कोई व्यक्ति तीक्ष्ण शस्त्र द्वारा किसी के मस्तक का छेदन करता है तो वह उसके जीवन का हरण नहीं करता। इससे केवल यही समझना चाहिए कि इन सात पदार्थों के अन्तर-स्थित स्थल में शस्त्रों का प्रवेश हुआ। पकुध के इस मत को नियतिवाद ही कहना चाहिए। त्रिपिटक में अक्रियावादी पूरण काश्यप के मत का वर्णन इन शब्दों में किया गया है:"किसी ने कुछ भी किया हो अथवा कराया हो, काटा हो या कटवाया हो, त्रास दिया हो या 1. बुद्ध-चरित पृ० 171 2. अध्ययन 6 व 7 3. शतक 15 4. 2.1.12; 2,6 5. सामञफलसुत्त-दीघनिकाय 2, बुद्धचरित पृ. 173 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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