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प्रस्तावना
बिना ही काँटे की तीक्ष्णता के समान भावों की उत्पत्ति होती है। उन्होंने इस वाद का निराकरण भी किया है । अतः अनिमित्तवाद, अकस्मात्वाद और यदृच्छावाद एक ही अर्थ के द्योतक हैं, ऐसा मानना चाहिए । कुछ लोग स्वभाववाद और यदृच्छावाद को एक ही मानते हैं किन्तु यह मान्यता ठीक नहीं है । इन दोनों में यह भेद है कि, स्वभाववादी स्वभाव को कारण रूप मानते हैं, किन्तु यदृच्छावादी कारण की सत्ता को ही अस्वीकार करते हैं" ।
(5) नियतिवाद
इस वाद का सर्वप्रथम उल्लेख भी श्वेताश्वतर में है, किन्तु वहाँ अथवा अन्य उपनिषदों में इस वाद का विशेष विवरण नहीं मिलता। जैनागम और बौद्ध - त्रिपिटक में नियतिवाद सम्बन्धी बहुत सी बातें उपलब्ध होती हैं । जब भगवान् बुद्ध ने उपदेश देना प्रारम्भ किया तब नियतिवादी जगह - जगह अपने मत का प्रचार कर रहे थे । भगवान् महावीर को भी नियतिवादियों से वाद-विवाद करना पड़ा था । उनकी मान्यता थी कि, आत्मा और परलोक का अस्तित्व है, परन्तु संसार में दृष्टिगोचर होने वाली जीवों की विचित्रता का कोई भी अन्य कारण नहीं है, सब कुछ एक निश्चित प्रकार से नियत है और नियत रहेगा। सभी जीव नियति-चक्र में फँसे हुए हैं। जीव में यह शक्ति नहीं कि इस चक्र में किसी भी प्रकार का परिवर्तन कर सके । यह नियति चक्र स्वयं ही घूमता रहता है और जीवों को एक नियत क्रम के अनुसार इधर-उधर ले जाता है । जब यह चक्र पूर्ण हो जाता है तो जीव स्वतः ही मुक्त हो जाता है। ऐसे वाद का प्रादुर्भाव उसी समय होता है जब मानव-बुद्धि पराजित हो जाती है ।
त्रिपिटक में पूरण काश्यप और मंखली गोशालक के मतों का वर्णन आया है । एक के वाद का नाम 'क्रियावाद' तथा दूसरे के वाद का नाम 'नियतिवाद' रखा गया है, किन्तु इन दोनों में सिद्धान्ततः विशेष भेद नहीं है । यही कारण है कि कुछ समय बाद पूरण काश्यप के अनुयायी जीवकों अर्थात् गोशालक के अनुयायियों में मिल गये थे । ग्राजीवकों और जैनों में आचार तथा तत्त्व-ज्ञान सम्बन्धी बहुत सी बातों में समानता थी, किन्तु मुख्य भेद नियतिवाद तथा पुरुषार्थवाद' में था । जैनागमों में ऐसे कई उल्लेख उपलब्ध होते हैं जिनसे प्रकट है कि, भगवान् महावीर ने अनेक विख्यात नियतिवादियों के मत में परिवर्तन कराया था । संभव है कि धीरे-धीरे प्राजीवक जैन में सम्मिलित होकर लुप्त हो गए हों । पकुध का मत भी क्रियावादी है, अतः वह नियतिवाद में समाविष्ट हो जाता है ।
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सामञ्ञफलसुत्त में गोशालक के नियतिवाद का निम्नलिखित वर्णन है
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न्याय - सूत्र 4.1.22.
पं० फणिभूषण-कृत न्याय भाष्य का अनुवाद 4.1.24 देखें ।
दीघनिकाय - सामञ्ञफलसुत्त
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बुद्धचरित (कोशांबी) पृ. 179
नियतिवाद का विस्तृत वर्णन 'उत्थान' महावीराङ्क में देखें पृ० 74
उपासक दशांग प्र० 7
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