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गणधरवाद
काल ही कारण है, इत्यादि । प्राचीन काल में काल का इतना महत्त्व होने के कारण ही दार्शनिक-काल में नैयायिक प्रादि चिन्तकों को इसके लिये प्रेरित किया कि अन्य ईश्वरादि कारणों के साथ काल को भी साधारण कारण माना जाए ।
(3) स्वभाववाद
उपनिषद् में स्वभाववाद का उल्लेख है। जो कुछ होता है, वह स्वभाव से ही होता है । स्वभाव के अतिरिक्त कर्म या ईश्वर रूप कोई कारण नहीं है, यह बात स्वभाववादी कहा करते थे। बुद्ध-चरित में स्वभाववाद का निम्न उल्लेख है । "कौन काँटे को तीक्ष्ण करता है ? अथवा पशु पक्षियों की विचित्रता क्यों है ?' इन सब बातों की प्रवृत्ति स्वभाव के कारण ही है। इसमें किसी की इच्छा अथवा प्रयत्न का अवकाश ही नहीं है। गीता और महाभारत में भी स्वभाववाद का उल्लेख है। माठर और न्याय कुसुमांजलिकार ने स्वभाववाद का खंडन किया है और अन्य अनेक दार्शनिकों ने भी स्वभाववाद का निषेध किया है। प्रस्तुत ग्रन्थ में भी अनेक बार इस वाद का निराकरण किया गया है।
(4) यदृच्छावाद
श्वेताश्वतर में यदृच्छा को कारण मानने वालों का भी उल्लेख है। इससे विदित होता है कि यह वाद भी प्राचीन काल से प्रचलित था। इस वाद का मन्तव्य यह है कि, किसी भी नियत कारण के बिना ही कार्य की उत्पत्ति हो जाती है। यदच्छा शब्द का अर्थ अकस्मात् है । अर्थात् किसी भी कारण के बिना। महाभारत में भी यदृच्छावाद का उल्लेख है । न्यायसूत्रकार ने इसी वाद का उल्लेख यह लिख कर दिया है कि, अनिमित्त-निमित्त के
1. महाभारत शान्तिपर्व अध्याय 25, 28, 32, 33 आदि । 2. जन्यानां जनक: कालो जगतामाश्रयो मतः । न्यायसिद्धांतमुक्तावलिका० 45; कालवाद के
निराकरण के लिए शास्त्र-वार्ता-समुच्चय देखें 252-5; माठरवृत्तिका 61. 3. श्वेता० 1.2. 4. बुद्ध-चरित 52, 5. भगवद्गीता 5. 14; महाभारत शान्तिपर्व 25.16.
माठरवृत्तिका0 61; न्यायकुसुमांजलि 1.5. स्वभाववाद के बोधक निम्न श्लोक सर्वत्र प्रसिद्ध हैं :नित्य सत्त्वा भवन्त्यन्ये नित्यासत्त्वाश्च केचन । विचित्राः केचिदित्यत्र तत्स्वभावो नियामकः ।। अग्निरुष्णो जलं शीतं समस्पर्शस्तथानिलः ।
केनेदं चित्रितं तस्मात् स्वभावात् तद्व्यवस्थितिः ।। 3. न्याय-भाष्य 3.2.31.
महाभारत शान्ति पर्व 33.23
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