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________________ प्रस्तावना 123 स्पष्टतः गुण रूपेण प्रतिपादित नहीं किया, फिर भी इसे आत्मा का गुण क्यों माना जाए ? इस बात का स्पष्टीकरण प्रशस्तपाद ने किया हैं। इससे प्रमाणित होता है कि वैशेषिकों की पदार्थव्यवस्था में अदृष्ट एक नवीन तत्त्व है । इस प्रकार वैदिकों ने यज्ञ अथवा देवाधिदेव के साथ अदष्ट-कर्मवाद का समन्वय किया है। किन्तु याज्ञिक विद्वान् यज्ञ के अतिरिक्त अन्य कर्मों के विषय में विचार नहीं कर सके और ईश्वरवादी भी ईश्वर की सिद्धि के लिए जितनी शक्ति का व्यय करते रहे उतनी वे कर्मवाद के रहस्य का उद्घाटन करने में नहीं लगा सके। अतः कर्मवाद मूल-रूप में जिस परम्परा का था, उसी ने उस वाद पर यथाशक्य विचार कर उसकी शास्त्रीय व्यवस्था की । यही कारण है कि कर्म की जैसी शास्त्रीय व्यवस्था जैन शास्त्रों में है, वैसी अन्यत्र उपलब्ध नहीं होती । अतः यह स्वीकार करना पड़ता है कि कर्मवाद का मूल जैन-परम्परा में और उससे पूर्वकालीन आदिवासियों में है । अब कर्म के स्वरूप का विशेष वर्णन करने से पहले यह उचित होगा कि कर्म के स्थान में जिन विविध कारणों की कल्पना की गई है, उन पर किंचित् विचार कर लिया जाए। उसके बाद उसी के आलोक में कर्म का विवेचन किया जाए। (2) कालवाद विश्व-सृष्टि का कोई न कोई कारण होना चाहिए, इस बात का विचार वेद-परम्परा में विविध रूप में हुआ है । किन्तु प्राचीन ऋग्वेद से यह प्रकट नहीं होता कि, उस समय विश्व की विचित्रता-जीव सृष्टि की विचित्रता के निमित्त कारण पर भी विचार किया गया हो। इस विषय का सर्वप्रथम उल्लेख श्वेताश्वतर (1.2.) में उपलब्ध होता है। उसमें काल, स्वभाव, नियति, यदृच्छा, भूत, और पुरुष इन में से किसी एक को मानने अथवा सबके समुदाय को मानने वाले वादों का प्रतिपादन है। इससे ज्ञात होता है कि, उस समय चिन्तक कारण की खोज में तत्पर हो गए थे और विश्व की विचित्रता की व्याख्या विविधरूप से करते थे। इन वादों में कालवाद का मूल प्राचीन मालूम होता है । अथर्ववेद में एक कालसूक्त है जिसमें कहा है कि : 'काल ने पृथ्वी को उत्पन्न किया, काल के आधार पर सूर्य तपता है, काल के आधार पर ही समस्त भूत रहते हैं, काल के कारण ही अाँखे देखती हैं, काल ही ईश्वर है, वह प्रजापति का भी पिता है, इत्यादि।' इसमें काल को सृष्टि का मूल कारण मानने का सिद्धान्त है। किंतु महाभारत में मनुष्यों की तो बात ही क्या, सनस्त जीव-सृष्टि के सुख-दुःख, जीवन-मरण इन सब का आधार काल माना गया है । इस प्रकार महाभारत में भी एक ऐसे पक्ष का उल्लेख मिलता है जो काल को विश्व की विचित्रता का मूल कारण मानता था। उसमें यहाँ तक कहा गया है कि, कर्म अथवा यज्ञ-यागादि अथवा किसी पुरुष द्वारा मनुष्यों को सुख-दुःख नहीं मिलता, किंतु मनुष्य काल द्वारा ही सब कुछ प्राप्त करता है । समस्त कार्यों में समानरूप से 1. 2. प्रशस्तपाद पृ. 47,637,643. अथर्ववेद 19.53-54. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001850
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Canon
File Size9 MB
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