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गणधरवाद
जब देववादी ब्राह्मणों का कर्मवादियों से सम्पर्क हुआ, तब देववाद के स्थान पर तत्काल ही कर्मवाद को प्रारूढ़ नहीं किया गया होगा। जिस प्रकार पहले आत्म-विद्या को गूढ़ एवं एकान्त में विचार करने योग्य माना गया था, उसी प्रकार कर्म-विद्या को भी रहस्य-पूर्ण और एकान्त में मननीय स्वीकार किया गया होगा। जिस प्रकार आत्म-विद्या के कारण यज्ञों से लोगों की श्रद्धा हटने लगी थी, उसी प्रकार कर्म-विद्या के कारण देवों सम्बन्धी श्रद्धा भी क्षीण होने लगी । इसी प्रकार के किसी कारणवश याज्ञवल्क्य जैसे दार्शनिक प्रार्तभाग को एकान्त में ले जाते हैं और उसे कर्म का रहस्य समझाते हैं। उस समय कर्म की प्रशंसा करते हुए वे कहते हैं कि, पुण्य करने से मनुष्य श्रेष्ठ बनता है और पाप करने से निकृष्ट ।
वैदिक-परम्परा में यज्ञ-कर्म तथा देव दोनों की मान्यता थी। जब देव की अपेक्षा कर्म का महत्व अधिक माना जाने लगा, तब यज्ञ का समर्थन करने वालों ने यज्ञ और कर्मवाद का समन्वय कर यज्ञ को ही देव बना दिया और वे यह मानने लगे कि, यज्ञ ही कर्म है तथा इसी से सब फल मिलते हैं । दार्शनिक व्यवस्था-काल में इन लोगों की परम्परा का नाम मीमांसकदर्शन पड़ा । किन्तु वैदिक-परम्परा में यज्ञ के विकास के साथ-साथ देवों की विचारणा का भी विकास हुअा था। ब्राह्मण-काल में प्राचीन अनेक देवों के स्थान पर एक प्रजापति को देवाधिदेव माना जाने लगा। जिन लोगों की श्रद्धा इस देवाधिदेव पर अटल रही, उनकी परम्परा में भी कर्मवाद को स्थान प्राप्त हुआ और उन्होंने भी प्रजापति तथा कर्मवाद का समन्वय अपने ढंग से किया है । वे मानते हैं कि, जीव को अपने कर्मानुसार फल तो मिलता है किन्तु इस फल को देने वाला देवाधिदेव ईश्वर है । ईश्वर जीवों के कर्मानुसार उन्हें फल देता है, अपनी इच्छा से नहीं। इस समन्वय को स्वीकार करने वाले वैदिक-दर्शनों में न्याय-वैशेषिक, वेदान्त और उत्तरकालीन सेश्वर सांख्य-दर्शन का समावेश है ।
वैदिक-परम्परा के लिए अदृष्ट अथवा कर्म-विचार नवीन है और बाहर से उसका आयात हुआ है । इस बात का एक प्रमाण यह भी है कि, वैदिक लोग पहले आत्मा की शारीरिक, मानसिक और वाचिक क्रियाओं को ही कर्म मानते थे। तत्पश्चात् वे यज्ञादि बाह्य अनुष्ठानों को भी कर्म कहने लगे। किन्तु ये अस्थायी अनुष्ठान स्वयमेव फल कैसे दे सकते हैं ? उनका तो उसी समय नाश हो जाता है, अतः किसी माध्यम की कल्पना करनी चाहिए । इस आधार पर मीमांसा-दर्शन में 'अपूर्व' नाम के पदार्थ की कल्पना की गई। यह कल्पना वेद में अथवा ब्राह्मणों में नहीं है। यह दार्शनिक-काल में ही दिखाई देती है। इससे भी सिद्ध होता है कि अपूर्व के समान अदृष्ट पदार्थ की कल्पना मीमांसकों की मौलिक देन नहीं, परन्तु वेदेतर प्रभाव का परिणाम है।
___इसी प्रकार वैशेषिक-सूत्रकार ने अदृष्ट (धर्माधर्म) के विषय में सूत्र में उल्लेख अवश्य किया है किन्तु उस अदृष्ट की व्यवस्था उसके टीकाकारों ने ही की है। वैशेषिक-सूत्रकार ने यह नहीं बताया कि अदृष्ट--धर्माधर्म क्या वस्तु है ? इसीलिए प्रशस्तपाद को उसकी व्यवस्था करनी पड़ी और उन्होंने उस का समावेश गुण पदार्थ में किया। सूत्रकार ने अदृष्ट को
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बृहदा० 3-2-13
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