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प्रस्तावना
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कर्म में है। वैदिकों ने देवों के स्थान पर यज्ञ-कर्म को प्रामीन कर दिया। देव और कुछ नहीं, वेद के मन्त्र ही देव हैं। इस यज्ञ-कर्म के समर्थन में ही अपने को कृत-कृत्य मानने वाली दार्शनिक-काल की मीमांसक विचारधारा ने तो यज्ञादि कर्म से उत्पन्न होने वाले अपूर्व नाम के पदार्थ की कल्पना कर वैदिक-दर्शन में देवों के स्थान पर अदृष्ट-कर्म का ही साम्राज्य स्थापित कर दिया।
यदि हम इस समस्त इतिहास को दृष्टि-सन्मुख रखें तो वैदिकों पर जन-परम्परा के कर्मवाद का व्यापक प्रभाव स्पष्टतः प्रतीत होता है । वैदिक-परम्परा में मान्य वेद और उपनिषदों तक की सृष्टि-प्रक्रिया के अनुसार जड़ और चेतन-सृष्टि अनादि न होकर सादि है । यह भी माना गया था कि, वह सृष्टि किसी एक या किन्हीं अनेक जड़ अथवा चेतन-तत्त्वों से उत्पन्न हई है। इससे विपरीत कर्म-सिद्धान्त के अनुसार यह मानना पड़ता है कि, जड़ अ सृष्टि अनादि काल से चली आ रही है। यह मान्यता जैन-परम्परा के मूल में ही विद्यमान है। उसके अनुसार किसी ऐसे समय की कल्पना नहीं की का सकती जब जड़ और चेतन का कर्म पर आश्रित अस्तित्व न रहा हो। यही नहीं, उपनिषदों के अनन्तरकालीन समस्त वैदिकमतों में भी संसारी-जीव का अस्तित्व इसी प्रकार अनादि स्वीकार किया गया है। यह कर्मतस्व की मान्यता की ही देन है । कर्म-तत्त्व की कुञ्जी इस सूत्र से प्राप्त होती है कि "जन्म का कारण कर्म है, और इसी सिद्धान्त के आधार पर संसार के अनादि होने की कल्पना की गई है। अनादि संसार के जिस सिद्धान्त को बाद में सभी वैदिक-दर्शनों ने स्वीकार किया, वह इन दर्शनों की उत्पत्ति के पूर्व ही जैन एवं बौद्ध परम्परा में विद्यमान था। किन्तु वेद अथवा उपनिषदों में इसे सर्वसम्मत सिद्धान्त के रूप में स्वीकृत नहीं किया गया। इसी से पता चलता है कि, इस सिद्धान्त का मूल वेद-बाह्य परम्परा में है । यह वेदेतर-परम्परा भारत में प्रार्यों के आगमन से पहले के निवासियों की तो है ही और उनकी इन मान्यताओं का ही सम्पूर्ण विकास वर्तमान जैन-परम्परा में उपलब्ध होता है।
जैन-परम्परा प्राचीन काल से ही कर्मवादी है, उसमें देववाद को कभी भी स्थान प्राप्त नहीं हुआ, अतः कर्मवाद की जैसी व्यवस्था जैन-ग्रन्थों में दृष्टिगोचर होती है वैसी विस्तृत व्यवस्था अन्यत्र दुर्लभ है। अनेक जीवों के उन्नत और अवनत जितने भी प्रकार सम्भव हैं, और एक ही जीव की, प्राध्यात्मिक दृष्टि से संसार की निकृष्टतम अवस्था से लेकर उसके विकास के जितने भी सोपान हैं, उन सबमें कर्म का क्या प्रभाव है तथा इस दृष्टि से कर्म की कैसी विविधता है, इन सब बातों का प्राचीन काल से ही विस्तृत शास्त्रीय निरूपण जैसा जैन-शास्त्रों में है, वैसा अन्यत्र दृग्गोचर होना शक्य नहीं है। इससे स्पष्ट है कि, कर्म-विचार का विकास जैनपरम्परा में हुआ है और इसी परम्परा में उसे व्यवस्थित रूप प्राप्त हुआ है। जैनों के इन विचारों के स्फुलिंग अन्यत्र पहुँचे और उसी के कारण दूसरों की विचारधारा में भी नूतन तेज प्रकट हुग्रा।
वैदिक विचारक यज्ञ की क्रिया के चारों ओर ही सारा वैचारिक प्रायोजन करते हैं । जसे उन की मौलिक विचारणा का स्तम्भ यज्ञ क्रिया है वैसे ही जैन विद्वानों की समस्त विचारणा कर्म पर आधारित है, अत: उनकी मौलिक विचारणा की नींव कर्मवाद है।
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