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से आए, इनका उद्भव विकास के नियमानुसार वैदिक विचारों से ही हुआ अथवा प्रवैदिक परम्परा के विचारकों से वैदिक विचारकों ने इन्हें ग्रहण किया—इन बातों का निर्णय आधुनिक विद्वान् अभी तक नहीं कर सके । किन्तु यह बात निश्चित है कि, वैदिक - साहित्य में सर्वप्रथम उपनिषदों में ही इन विचारों का दर्शन होता है । आधुनिक विद्वानों में इस विषय में कोई विवाद नहीं है कि उपनिषदों के पूर्वकालीन वैदिक साहित्य में संसार और कर्म को कल्पना का स्पष्ट रूप दिखाई नहीं देता । 'कर्म कारण है' ऐसा वाद भी उपनिषदों का सर्वसम्मत वाद हो, यह भी नहीं कहा जा सकता । अतः इसे वैदिक विचारधारा का मौलिक विचार स्वीकार नहीं किया जा सकता । श्वेताश्वतर उपनिषद् में जहाँ अनेक कारणों का उल्लेख किया है वहाँ काल, स्वभाव, नियति, यदृच्छा, भूत, प्रथवा पुरुष अथवा इन सबके संयोग का प्रतिपादन है । कालादि को कारण मानने वाले वैदिक हों या अवैदिक, किन्तु इन कारणों में भी कर्म का समावेश नहीं है ।
अब इस बात की शोध करना शेष है कि, जब उपनिषद् काल में भी वैदिक परम्परा में कर्म या अदृष्ट सर्वमान्य केन्द्रस्थ तत्त्व नहीं था तब वैदिक परम्परा में इस विचार का प्रायात कौन-सी परम्परा से हुआ ? कुछ विद्वानों का मत है कि, आर्यों ने ये विचार भारत के आदिवासियों (Primitive People) से ग्रहण किये । प्रोफेसर हिरियन्ना ने इस मान्यता का निराकरण यह लिखकर किया है कि, आदिवासियों का यह सिद्धान्त कि आत्मा मर कर वनस्पति आदि में गमन करती है केवल एक अन्ध-विश्वास प्रथवा मिथ्या भ्राँति ( superstition ) था । तत्त्वतः उनके इस विचार को तर्काश्रित नहीं कहा जा सकता | पुनर्जन्म के सिद्धान्त का लक्ष्य तो मनुष्य की तार्किक और नैतिक चेतना को सन्तुष्ट करना है ।
आदिवासियों की यह मान्यता कि, मनुष्य का जीव मर कर वनस्पति आदि के रूप में जन्म लेता है, केवल अन्ध-विश्वास कहकर त्यक्त नहीं की जा सकती । उपनिषदों से पहले जिस कर्मवाद के सिद्धान्त को वैदिक देववाद से विकसित नहीं किया जा सकता, उस कर्म-वाद का मूल आदिवासियों की पूर्वोक्त मान्यता से सरलतया सम्बद्ध है । इस तथ्य की प्रतीति उस समय होती है जब हम जैन-धर्म सम्मत जीववाद और कर्मवाद के गहन मूल को ढूंढने का प्रयास करते हैं । जैन परम्परा का प्राचीन नाम कुछ भी हो, किन्तु यह बात असंदिग्ध है कि, वह उपनिषदों से स्वतन्त्र और प्राचीन है । अतः यह मानना निराधार है कि उपनिषदों में प्रस्फुटित होने वाले कर्मवाद विषयक नवीन विचार प्रस्फुटित हुए हैं वे जैन सम्मत कर्मवाद के प्रभाव से रहित हैं । जो वैदिक परम्परा देवों के बिना एक कदम भी आगे नहीं बढ़ती थी, वह कर्मवाद के इस सिद्धान्त को हस्तगत कर यह मानने लगी कि, फल देने की शक्ति देवों में नहीं प्रत्युत स्वयं यज्ञ
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गणधरवाद
Hiriyanna : outlines of Indian Philosophy p. 80; Belvelkar : History of Indian Philosophy pt. II p. 82
श्वेताश्वतर 12
इसके उल्लेख और निराकरण के लिए देखें। Hiriyanna outlines of Indian philosophy p. 790.
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